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________________ 1446- जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | .. वन्दन करने योग्य गुरु को ही वन्दन करना है, इसका पूरा विवेक रखना है। वन्दन करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना है, क्योंकि साधक जब तक यह सारी जानकारी नहीं कर लेगा, वन्दन का लाभ नहीं हो सकेगा। असंयमी पतित को वन्दन करने का अर्थ है पतन की ओर जाना। आचार्य भद्रबाहु स्वामी आवश्यक नियुक्ति में कहते हैं कि- जो मनुष्य गुणहीन अवंद्य व्यक्ति को वन्दन करता है तो उसके कर्मों की निर्जरा नहीं होती है और न कीर्ति। अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करने वाले को भी दोष लगता है। जैन धर्म के अनुसार द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के चारित्र से सम्पन्न त्यागी, वीतरागी, आचार्य, उपाध्याय, स्थावर एवं गुरुदेव आदि ही वन्दनीय हैं। इन्हीं को वन्दन करने से भव्य साधक आत्म कल्याण कर सकता है, अन्यथा नहीं। साधक के लिये ऐसा गुरु चाहिये जो बाह्य और अन्तर से पूर्ण शुद्ध हो तथा व्यवहार व निश्चय दोनों दृष्टियों से पूर्ण हो। वन्दना आवश्यक यथाविधि करने से विनय की प्राप्ति होती है। गुरु वन्दन की क्रिया बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। मन के कण-कण में भक्ति भावना का विमल स्रोत बहाये बिना वन्दन द्रव्यवन्दन हो जाता है। जिससे साधक की उन्नति नहीं हो पाती है। आचार्य मलयगिरि आवश्यक वृत्ति में द्रव्य और भाव वन्दन की व्याख्या करते हुए कहते हैं- द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तसम्यग्दृष्टश्च, भावतः सम्यग् दृष्टेरुपयुक्तस्य । वन्दन से विनय गुण प्रकट होता है और विनय धर्म का मूल है। यदि शुद्ध भावों से वन्दन कर लिया जाय तो तीर्थकर गोत्र भी उपार्जित किया जा सकता है। इसलिये आवश्यक सूत्र में तीसरा पद वन्दन को रखा गया है। 4. प्रतिक्रमण चौथा अध्ययन प्रतिक्रमण का है। व्रतों में लगे हुए अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण की आवश्यकता है। प्रतिदिन यथासमय यह चिन्तन करना कि आज आत्मा व्रत से अव्रत में कितना गया? कषाय की ज्वाला कितनी बार प्रज्वलित हुई? हुई तो निमित्त क्या बना? वह कषाय कैसा था अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी या संज्वलन? क्रोध के आवेश में किस प्रकार के शब्दों का उच्चारण किया है आदि सूक्ष्म रूप से चिन्तन-मनन करना तथा आये हुए अशुभ विचारों को शुद्ध करना ही प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यक सूत्र की टीका में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए बताया स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते।। 'प्रतिक्रमण' जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है। प्रतिक्रमण क शाब्दिक अर्थ है- पुन: लौटना। हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर अपनी स्वभाव दशा से निकलकर विभाव दशा में चले जाते हैं। अत: पुन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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