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• जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क द्रव्य आवश्यक है । द्रव्य का अर्थ है प्राण रहित शरीर । बिना प्राण के शरीर केवल दृश्य वस्तु है, गतिशील नहीं । आवश्यक के मूल पाठ बिना उपयोग व विचार से बोलना, दैनिक जीवन में किसी तरह का संयम नहीं रखना और सुबह-शाम आवश्यक सूत्र के पाठों की रटन-क्रिया में लग जाना, द्रव्य क्रिया ही है। विवेकहीन साधना अन्तर्जीवन में प्रकाश नहीं दे सकती ।
भाव आवश्यक का अर्थ - अन्तरंग उपयोग के साथ. लोक तथा परलोक की वासना से रहित, यशकीर्ति, सम्मान आदि की अभिलाषा से शून्य, मन, वचन, शरीर को निश्चल, निष्काम, एकाग्र बनाकर आवश्यक की मूल भावना में उतर कर, दिन और रात्रि के जीवन में जिनाज्ञा के अनुसार विचरण कर, आवश्यक संबंधी मूल पाठों पर चिन्तन, मनन, निदिध्यासन करते हुए केवल निजात्मा को कर्म-मल से विशुद्ध बनाने के लिये, दोनों काल सामायिक आदि आवश्यक की साधना करना है, केवल क्रिया आत्मशुद्धि नहीं कर सकती है।
भाव आवश्यक का स्वरूप अनुयोगद्वार सूत्र में बताया गया हैजं णं इमे समणो वा, समणी वा, सावओ वा, साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणं तदट्ठोवउत्ते, तदप्पिकरणे, तब्मावणा भाविए. अन्नत्थ कत्थइ मणे अकरेमाणे उभओकाल आवस्सयं करेंति से तं लोगुत्तरियं भावावस्सय
जैन संस्कृति में और वैदिक संस्कृति के नित्य कर्मों के विधान में भिन्नता है। ब्राह्मण संस्कृति संसार की भौतिक व्यवस्था में अधिक रस लेती है । इसलिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के कार्यकलापों में भिन्नता लिये हुए है। किन्तु जैन संस्कृति मानवता को जोड़ने वाली संस्कृति है । जैन धर्म के षडावश्यक मानव मात्र के लिये एक जैसे हैं। चाहे वह किसी भी जाति, लिंग वर्ग का हो, उसे सहज रूप से कर सकता है और मानव अपना कल्याण कर सकता है।
आवश्यक नियुक्ति में स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रथम और चरम तीर्थंकरों के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म प्ररूपित किया गया है। आवश्यक निर्युक्ति की गाथा १२४४ में स्पष्ट किया गया है
सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ।।
श्रावकों के लिये भी आवश्यक की जानकारी आवश्यक मानी गई
है । आवश्यक सूत्र के छ: अंग हैं
१ . सामायिक- समभाव की साधना
२. चतुर्विंशतिस्तव - चौबीस तीर्थकरों की स्तुति
सद्गुरुओं को नमस्कार, उनका गुणगान
३. वन्दन४. प्रतिक्रमण - दोषों की आलोचना
५. कायोत्सर्ग- शरीर के ममत्व का त्याग
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