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आवश्यक सूत्र * श्रीमती शान्ता मोदी
आवश्यक सूत्र में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान नामक षड्विध आवश्यकों का निरूपण है। यह सूत्र श्रमण-श्रमणियों के लिए ही नहीं श्रावकों के लिए भी पाप क्रियाओं से बचकर धर्ममार्ग में अग्रसर होने की प्रायोगिक विधि प्रस्तुत करता है। यह पाप-शोधन के साथ भाव-विशुद्धि की ओर सजग बनाता है। वरिष्ठ स्वाध्यायी एवं पूर्व व्याख्याता श्रीमती शान्ता जी ने आवश्यक सूत्र पर सारगर्भित महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है। -सम्पादक
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जैन आगम - साहित्य में आवश्यक सूत्र का अपना विशिष्ट स्थान है अनुयोगद्वार चूर्णि में आवश्यक को परिभाषित करते हुए लिखा है- जो गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों में आवासित करता है, वह आवासक या आवश्यक है। अनुयोगद्वार मलधारीय टीका में लिखा है कि जो समस्त गुणों का निवास स्थान है वह आवासक या आवश्यक है। आवश्यक जैन-साधना का प्राण है। वह जीवन-शुद्धि और दोष परिमार्जन का जीवन्त भाष्य है। साधक चाहे साक्षर हो चाहे निरक्षर हो, चाहे सामान्य हो या प्रतिभा का धनी, सभी साधकों के लिये आवश्यक का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। इसके द्वारा साधक अपनी आत्मा का पूर्ण अवलोकन करता है। वह आध्यात्मिक समता, नम्रता प्रभृति सद्गुणों का आधार है । अन्तर्दृष्टि सम्पन्न साधक का लक्ष्य बाह्य पदार्थ नहीं, आत्मशोधन है। जिस साधना और आराधना से आत्मा शाश्वत सुख का अनुभव करे, कर्ममल को नष्ट कर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से अध्यात्म के आलोक को प्राप्त करे, वह आवश्यक है। अपनी भूलों को निहार कर उन भूलों के परिष्कार के लिये कुछ न कुछ क्रिया करना आवश्यक है। आवश्यक का विधान श्रमण हो या श्रमणी हो, श्रावक हो या श्राविका हो, सभी के लिये है। आचार्य मलयगिरि कहते हैं- 'ज्ञानादिगुणानाम् आसमन्ताद् वश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात् तद् आवश्यकम्'
अनुयोगद्वारसूत्र में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम दिये हैंआवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह विशोधि, अध्ययनषट्क वर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग ।
जैन दर्शन में द्रव्य और भाव का बहुत ही गम्भीर व सूक्ष्म चिन्तन किया गया है। यहाँ प्रत्येक साधना एवं प्रत्येक क्रिया को द्रव्य और भांव के भेद से देखा जाता है। बाह्य दृष्टि वाले लोग द्रव्य-प्रधान होते हैं जबकि अन्तर्दृष्टि वाले भाव प्रधान होते हैं।
द्रव्य आवश्यक का अर्थ है- अन्तरंग उपयोग के बिना केवल परम्परा के आधार पर किया जाने वाला पुण्यफल का इच्छारूप आवश्यक
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