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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क गया है। दूसरा उद्देशक
इसमें ५७ सूत्र हैं। पहले आठ सूत्रों में पादप्रोच्छन के विषय में विचार हैं। पुराने फटे हुए कंबल के एक हाथ लंबे-चौड़े टुकडे को पांव-पौंछन कहा गया है। उसके पश्चात् इत्र आदि सुगंधित पदार्थों को सूंघने का निषेध है। पगडंडी, नाली, छींके का ढक्कन आदि बनाने का निषेध है। श्रमण को कठोर भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिये, उससे सुनने वाले के मन में क्लेश होता है। भाषा सत्य और सुन्दर होनी चाहिये। अन्य के हृदय को व्यथित करने वाली भाषा का प्रयोग हिंसा है। अल्प असत्य भाषा का प्रयोग भी श्रमण के लिये निषिद्ध है, अदत्त वस्तु ग्रहण करना भी निषिद्ध है, शरीर को सजाना, संवारना, मूल्यवान वस्तुएँ धारण करना निषिद्ध है। साधु चमड़े से बनी वस्तुओं का प्रयोग नहीं कर सकते। इस उद्देशक में जिनका निषेध किया गया है, उनका लघुमास प्रायश्चित्त निश्चित किया गया है। तीसरा उद्देशक
। इसमें ८० सूत्र हैं। एक से बारह सूत्र तक साधु को धर्मशाला, मुसाफिरखाना, आरामगृह या गृहस्थी के यहां उच्च स्तर से आहार आदि मांगने का, सामूहिक भोज में भोजन ग्रहण करने का, पैरों के परिमार्जन, परिमर्दन, प्रक्षालन व शरीर के संवाहन का निषेध है। बाल, नाखून आदि काटने का, श्मशान में, खान में, फल सब्जी रखने के स्थान में, उपवन में, धूप रहित स्थान में मलविसर्जन का निषेध है। पालन न करने वाले के लिये लघूमासिक प्रायश्चित्त का विधान है। चौथा उद्देशक
इसमें १२८ सूत्र हैं। राजा, राज्यरक्षक, नगररक्षक, ग्रामरक्षक, सीमारक्षक, देशरक्षक को वश में करने के लिये उनका गुणानुवाद करना, सचित्त धान आदि का आहार करना, आचार्य की आज्ञा बिना दूध आदि विगय ग्रहण करने का निषेध है। साधु जीवन का सार क्षमा है। क्रोध में विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे वैर का जन्म होता है। कलह के मूल में कषाय है। अत: कलह को जागृत करने का निषेध है। माचिस दूसरों को जलाने के पहले खुद जल जाती है। वैसे ही कलह करने वाला स्वयं कर्मबंधन करता है। कलह पाप है, उससे बचना चाहिये। पाँचवाँ उद्देशक
इसमें ५२ सूत्र हैं। सचित्त वृक्ष की मूल के निकट बैठना, खड़ा होना, सोना, आहार करना, लघुशंका करना, काउसग्ग करना, स्वाध्याय करना निषिद्ध है। अपनी चद्दर गृहस्थ से धुलवाना, अधिक लंबी चादर रखने का निषेध है। पलाश, नीम आदि के पत्तों को धोकर रखने का निषेध है। मुख,
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