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________________ निशीथ सूत्र 43] रखकर उत्सर्ग और अपवाद का निरूपण किया है। भाष्यकार लिखते हैं कि समर्थ साधक के लिये उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध किया गया है, असमर्थ साधक के लिये अपवाद की परिस्थिति में विशेष कारण से वह द्रव्य ग्राह्य भी हो जाता है। जैन आचार की मल अहिंसा है। अन्य चार महाव्रत अहिंसा का ही विस्तार हैं। जहाँ प्रमाद है, वहां हिंसा है। संयमी साधक के जीवन में अप्रमाद मुख्य होता है। संयमी साधक विवेकपूर्वक चल रहा है, पहले उसे जीव दिखाई नहीं दिया. पर ज्यों ही कदम आया कि दिखाई दिया। बचाने का प्रयत्न करते हुए भी जीव पर पांव पड़ गया और वह मर गया। यह सहसा प्रतिसेवना है, इसमें कर्मबंध नहीं है। अहिंसा का आराधन श्रमण का उत्सर्ग मार्ग है। वह मन, वचन, काया से जीव हिंसा नहीं करता। वह किसी भी सचित्त वस्तु का स्पर्श नहीं करता। यदि अनिवार्य कारणवश श्रमण को ऊँचे, नीचे, टेढ़े, मेढ़े मार्ग पर जाना पड़े तो वह वनस्पति का या किसी के हाथ का सहारा ले सकता है। यह अपवादमार्ग है। इसी प्रकार श्रमण सचित्त पानी को स्पर्श नहीं कर सकता, पर उमड़ घुमड़ कर वर्षा हो रही हो तो श्रमण लघु शंका या दीर्घ शंका के लिये बाहर जा सकता है, क्योंकि मलमूत्र को बलपूर्वक रोकने से रोग हो सकते हैं। निशीथभाष्य में ऐसे अनेक प्रसंग हैं कि दुर्भिक्ष आदि की स्थिति में अपवाद मार्ग में श्रमण आधा कर्म आहार ग्रहण कर सकता है। जैन साधु के लिये यह विधान है कि वह चिकित्सा की इच्छा न करे, रोग को शांति से सहन करे, किन्तु जब रोग होने पर समाधि न रहे तो चिकित्सा करवा सकता है। किन्तु इसे गुप्त रखा जाय, क्योंकि यदि विरोधी आलोचना करेंगे तो जिन धर्म की अवहेलना होगी। । प्रायश्चित्त और दंड में अंतर है। प्रायश्चित्त में साधक अपने दोष को स्वयं स्वीकार करता है। किन्तु दंड को इच्छा से नहीं अपितु विवशता से स्वीकार किया जाता है। दंड थोपा जाता है, प्रायश्चित्त हृदय से स्वीकार होता है। इसीलिये राजनीति में दंड का विधान है, जबकि धर्मनीति में प्रायश्चित्त का। संक्षिप्त माशि प्रथम उद्देशक इसमें ५८ सूत्र हैं। इस उद्देशक में ब्रह्मचर्य का निरतिचार पालन करने पर बल दिया गया है। महाव्रतों में ब्रह्मचर्य चौथे स्थान पर है, किन्तु अपनी महिमा के कारण सभी व्रतों में प्रथम है। जो ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेता है, वह समस्त नियमों की आराधना कर लेता है। सभी व्रतों का मूलाधार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधकों को नियमों का दृढ़ता से पालन करना चाहिये। इस आगम के प्रारंभ में ही सर्वप्रथम यह सूचित किया गया है। शरीरिक अंगों को उत्तेजित करने का इसमें पूरी तरह निषेध किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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