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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाड़क अविवेक-अभक्ति से प्रवर्तन करना 'आशातना' है। चतुर्थदशा
साधु-साध्वियों के समुदाय की समुचित व्यवस्था के लिए आचार्य का होना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत दशा में आचार्य के आठ मुख्य गुण वर्णित हैं, जैसे1. आचारसम्पन्न- सम्पूर्ण संयम-संबंधी जिनाज्ञा का पालन करने वाला, क्रोध, मानादि कषायों से रहित, शान्तस्वभाव वाला। 2. श्रुतसम्पदा- आगमोक्त क्रम से शास्त्रों को कण्ठस्थ करने वाला एवं उनके अर्थ परमार्थ को धारण करने वाला। 3. शरीर सम्पदा- समुचित संहनन संस्थान वाला एवं सशक्त और स्वस्थ शरीर वाला। 4. वचनसम्पदा- आदेय, मधुर और राग-द्वेष रहित एवं भाषा संबंधी दोषों से रहित वचन बोलने वाला। 5. वाचना सम्पदा- सूत्रों के पाठों का उच्चारण करने-कराने, अर्थ परमार्थ को समझाने तथा शिष्य की क्षमता-योग्यता का निर्णय करके शास्त्र ज्ञान देने में निपुण। योग्य शिष्यों को राग-द्वेष या कषाय रहित होकर अध्ययन कराने वाला। 6. मतिसम्पदा- स्मरणशक्ति एवं चारों प्रकार की बुद्धि से युक्त बुद्धिमान। 7. प्रयोगमतिसम्पदा- वाद-विवाद (शास्त्रार्थ), प्रश्नों(जिज्ञासाओं) के समाधान करने में परिषद् का विचार कर योग्य विश्लेषण करने एवं सेवा व्यवस्था में समय पर उचित बुद्धि की स्फुरणा, समय पर सही (लाभदायक) निर्णय एवं प्रवर्तन की क्षमता। 8. सङ्ग्रहपरिज्ञासम्पदा- साधु, साध्वियों की व्यवस्था एवं सेवा के द्वारा तथा श्रावक-श्राविकाओं की विचरण तथा धर्म प्रभावना के द्वारा भक्ति, निष्ठा, ज्ञान और विवेक की वृद्धि करने वाला जिससे कि संयम के अनुकूल विचरण क्षेत्र, आवश्यक उपधि, आहार की प्रचुर उपलब्धि होती रहे एवं सभी निराबाध संयम-आराधना करते रहें। शिष्यों के प्रति आचार्य के कर्तव्य १. संयम संबंधी और त्याग-तप संबंधी समाचारी का ज्ञान कराना एवं उसके पालन में अभ्यस्त करना। समूह में या अकेले रहने एवं आत्म-समाधि की विधियों का ज्ञान एवं अभ्यास कराना। २. आगमों का क्रम से अध्ययन करवाना, अर्थज्ञान करवाकर उससे किस तरह हिताहित होता है, यह समझाना एवं उससे पूर्ण आत्मकल्याण साधने
का बोध देते हुए परिपूर्ण वाचना देना। ३ शिष्यों की श्रद्धा को पूर्ण रूप में दृढ़ बनाना और ज्ञान एवं अन्य गुणों में
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