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________________ 1388 जिनवाणी-- जैनागम-साहित्य विशेषाङक | नाम की प्ररूपणा स्थानांग की तरह की गई है। इसके अन्तर्गत अनेकानेक विषयों का विस्तार उपलब्ध होता है जैसे कि अक्षर विज्ञान, जीव स्थान, लोकस्वरूप, छह आरा, स्वर विज्ञान, अष्ट विभक्ति, नव रस, जीव के भाव, पुद्गल के लक्षण, गीत की भाषा, समास आदि का परिचय तथा विस्तार मिलता है। नाम अध्ययन के अन्तर्गत भाव-संयोग निष्पन्न नाम में धर्मों को भाव कहा है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र प्रशस्त भाव नाम हैं तथा क्रोधादि विकार अप्रशस्त भावनाम हैं । उपक्रम के तृतीय प्रमाणाधिकार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के रूप में प्रमाण का अत्यन्त विस्तृत विवेचन मिलता है जो कि अद्वितीय है, अनुपम है और श्रुतज्ञान का बेजोड़ प्रस्तुतीकरण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रमाण के प्रदेश निष्पन्न और विभागनिष्पन्न ये दो दो भेद करके उनके उपभेदों के माध्यम से मापने लायक समस्त वस्तुओं को मापने का तरीका बताया है। प्रमाण शब्द यहां न्यायशास्त्र प्रसिद्ध अर्थ का वाचक नहीं, किन्तु व्यापक अर्थ में प्रस्तुत किया गया है। वस्तुओं के स्वरूप को मापना प्रमाण है। द्रव्यत: क्षेत्रत:, कालत: तथा भावत: वस्तुओं का प्रमाण यहां किया गया है फिर चाहे वह धान्य, रस, मार्ग, सुवर्ण, रत्न, परमाणु, परावर्तन, अवगाहना, काल या फिर जीव के ज्ञान ,दर्शन आदि तथा अजीव के वर्ण, रस आदि भाव ही क्यों न हों। प्रत्यक्ष ज्ञान के अन्तर्गत इन्द्रिय प्रत्यक्ष का और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तर्गत अवधि, मन:पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान का स्वरूप बताया है। अनुमान, उपमान, आगम, दर्शनगुण तथा चारित्र गुण का वर्णन जीवगुण प्रमाण के अन्तर्गत किया गया है। अजीवगुण प्रमाण में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान के प्रमाणत्व की चर्चा है। नयप्रमाण का तीन दृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण है। प्रस्थक, वसति व प्रदेश के दृष्टान्त द्वारा सप्त नय की सुन्दर चर्चा है। प्रस्थकदृष्टान्त में काल की मुख्यता है, वसति में क्षेत्र का और प्रदेशदृष्टान्त में द्रव्य व भाव का विचार किया गया है। संख्याप्रमाण आठ प्रकार का है। संख्येय, असंख्येय, अनन्त—इनके जघन्य, मध्यम उत्कृष्ट आदि का विस्तार संख्याप्रमाण के गणनाप्रमाण के अन्तर्गत मिलता है। प्रमाण उपक्रम में सामायिक अध्ययन के पश्चात् वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार उपक्रम अध्ययन के वर्णन किये हैं। वक्तव्यता के अन्तर्गत स्वसमय सिद्धान्त तथा पर समय सिद्धांत की व्याख्या तथा अर्थाधिकार में उन-उन अध्ययनों का अर्थ है। समवतार का तात्पर्य है वस्तुओं का अपने में, पर में और दोनों में योजना करने का विचार करना। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु का अपने में, पर में तथा दोनों में समवतीर्ण होने का विचार षट् समवतार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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