SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1386 म जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | आवश्यक-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप से चार प्रकार का है तथा स्थापना आवश्यक के चालीस भेद बताये हैं। आगमत: द्रव्य आवश्यक को सप्तनय से तथा नोआगमत: द्रव्य आवश्यक को ज्ञशरीर, भव्यशरीर तथा तदव्यतिरिक्त/ तद्व्यतिरेक्त-- इन तीन दृष्टियों से समझाया है। भाव आवश्यक के दो भेद बताकर नो आगमत: भाव आवश्यक के तीन उपभेदों को समझने की आवश्यकता व आवश्यक के अवश्यकरणीय ध्रुवनिग्रह, विशोधि, अध्ययन– षट्कवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग एकार्थक नामों की परिभाषा से प्रथम आवश्यक अधिकार का वर्णन समाप्त करते हैं। आवश्यक का निक्षेप करने के पश्चात् श्रुत का निक्षेप पूर्वक विवेचन करते हुए आगमकार श्रुत के भी नामश्रुत, स्थापना श्रुत, द्रव्यश्रुत, भावश्रुत भेद करके पुनश्च उनके उपभेद करके लौकिक, लोकोत्तरिक श्रुत आदि तथा अन्य श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा वचन, उपदेश, प्रज्ञापना, आगम आदि एकार्थक पर्याय नाम देकर स्कन्ध निरूपण करते हैं। स्कन्ध के भी नाम, स्थापना, द्रव्य भाव से चार प्रकार करके स्कन्ध के गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुंज, पिंड, निकर, संघात, आकुल समूह– इन पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या कर स्कन्धाधिकार का वर्णन पूर्ण करते हैं। आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध-इन तीन अधिकारों के पश्चात् सावद्ययोगविरत (सामायिक), उत्कीर्तन (चतुर्विशतिस्तव), गुणवत्प्रतिपत्ति (वंदना),स्खलितनिन्दा (प्रतिक्रमण), व्रण चिकित्सा (कायोत्सर्ग) तथा गुणधारणा (प्रत्याख्यान)-आवश्यक के ये छह अध्ययन स्पष्ट करके सामायिक अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार अनुयोगद्वारों का विस्तार से वर्णन प्रारम्भ करते हैं। सामायिक समस्त चारित्रगुणों का आधार तथा मानसिक, शारीरिक दुःखों के नाश तथा मुक्ति का प्रधान हेतु है । अनुयोग का अर्थ करते हुए कहा है कि अर्थ का कथन करने की विधि अनुयोग है। वस्तु का योग्य रीति से प्रतिपादन करना उपक्रम है । निक्षेप सूत्रगत पदों का न्यास है, अनुगम सूत्र का अनुकूल अर्थ कहना है तथा अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करना नय है । उपक्रम के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से भेद करके उपक्रम के अन्य प्रकार से आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार तथा समवतार ये छह भेद बताये हैं। सर्वप्रथम आनुपूर्वी का अर्थ अनुक्रम या परिपाटी बतलाकर नामानुपूर्वी, स्थापनानुपूर्वी आदि दस प्रकार से आनुपूर्वी का अत्यन्त विस्तार से वर्णन विश्लेषण किया गया है। इस विवेचन में अनेक जैन मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया गया है । आनुपूर्वी के पश्चात् नाम उपक्रम सामायिक अध्ययन में एक से दस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy