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________________ 1372 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक सामंजस्य पा रहे हैं और इसीलिये एक ग्रन्थ का प्रामाण्य अथवा निर्देश दूसरे ग्रंथ में पाते हैं। समाचारी शतक, पत्र ७७ में इस विषय को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है - “साम्प्रतं वर्तमानाः पंचत्वारिंशदप्यागमाः श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः श्रीवीरादशीत्यधिकनवशतवर्षे 980 जातेन द्वादशवर्षीयदर्भिक्षवशात? (जातया द्वादशवर्षीयदुर्भिक्षतया) बहुतरसाधुव्याप्तौ बहुश्रुतविच्छित्तौ च जातायाम्, यदाहुः-"प्रसह्य श्रीजिनशासनं रक्षणीयम्, तद्रक्षणंच सिद्धान्ताधीनम्" इति भविष्यद्भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसंघाऽऽग्रहान्मृताऽवशिष्ट तत्कालीन? (लिक) सर्वसाधून वल्लभ्यामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नाऽवशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् आगमाऽऽलापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य (ते) पुस्तकाऽऽरूढाः कृताः। ततो मूलतो गणधरभाषितानामपि तत्संकलनाऽनन्तरं सर्वेषां पंचचत्वारिंशन्मितानामप्यागमानां कर्ता श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण एव जातः। तज् ज्ञापकमपीदम्- 'यथा श्रीभगवतीसूत्रं श्रीसुधर्मस्वामिकृतम् । प्रज्ञापनासूत्रं च वीरात् पंचत्रिंशदधिकत्रिशतमिते वर्षे जातं श्रीश्यामाचार्यकृतम् । श्री भगवत्यां च बहुषु स्थानेषु साक्षिः? लिखितास्ति-'जहा पन्नवणाए' एवमन्येष्वप्यंङ्गेषु-उपाङ्गसाक्षिः? लिखिता, (साक्ष्य लिखितम्) तद्वचने त्वया उपयोगो देयः।" इस कथन से यह भलीभांति सिद्ध हो गया कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण संकलयिता थे। एक आगम में दूसरे आगम के निर्देश का कारण भी इसी से समझ में आ जाता है। नन्दीसूत्र का निर्देश अन्य आगमों में मिलता हैजहा नंदीए(भगवती सूत्र शतक ८, उद्देशक २, सूत्र ३२३)। जहा नंदीए(भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक २, सूत्र ३२३)। जहा नंदीए (समवायांग, समवाय ८८)। जहा नंदीए (राजप्रश्नीय, पत्र ३०५)। - इस प्रकार अन्यान्य आगमों में भी नन्दीसूत्र का उल्लेख पाया जाता है। इससे नन्दीसूत्र की पूर्ण प्रामाणिकता व प्राचीनता सिद्ध होती है। नन्दीसूत्र में अवतरणनिर्देश की शैली आगमों की प्राचीन शैली से पता चलता है कि प्रस्तुत आगम का प्रस्तुत आगम में भी निर्देश किया जाता था, जैसे कि समवायांग सूत्र में द्वादशांग के वर्णन प्रसंग में खुद समवायांग का भी नाम आया है। ऐसे ही व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में द्वादशांग का उल्लेख करते समय खुद व्याख्याप्रज्ञप्ति का भी नाम आया है। यही क्रम अन्य आगमों में भी मिलता है। यह प्राचीन परम्परा वेदों में भी पाई जाती है, जैसे कि ____ "सुपर्णोऽसि गरुत्माँ सिवृत्ते शिरों गायत्रं चक्षुर्वृहद्रथन्तरे पक्षौ स्तोम आत्मा छन्दास्यंगानि यजूंषि नाम।" (यजुर्वेद अध्याय 12, मन्त्र 4) इसी प्राचीन शैली को नन्दीसूत्र में भी स्वीकार किया है। अतएव उत्कालिक सूत्र की गणना में नन्दी सूत्र का नाम मिलता है। अश्रुतनिश्रितज्ञान की विशेषता _मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित ये दो भेद प्रतिपादित किये गए हैं। श्रुतनिश्रित का जो विषय नन्दीसूत्र में प्रतिपादित किया गया है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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