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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | ऐसा हो तो ज्ञान वाले, सुनाने वाले, उद्बोधन देने वाले के दिल पर क्या बीतेगी? उसका उत्साह मुरझा जायेगा। उसका मन तो तभी उत्साहित होगा जबकि आपको सुनने की सजग जिज्ञासा हो।
शास्त्रकार कहते हैं- “जो विनय बाहर में है, उसे आचरण में लाने की भावना होनी चाहिए।' यहाँ कई लोग ऐसे भी हैं जो हम संतों की परीक्षा लेने की भावना से आते हैं। महाराज हमारे शहर में पधारे हैं, चलो देखा जाए कि वे कैसा प्रवचन करते हैं, क्या कहते हैं, किस ढंग से समझाते हैं? यह धर्मस्थान है, कोई परीक्षा का स्थान नहीं है। यहाँ सैंकड़ों अच्छी बातें सुनने, समझने को मिलेंगी। आप को जो भी अच्छी लगे, जीवन में ग्रहण कर लीजिए यह विनय है, यही शिष्टाचार है। अनुशासन रूप विनय
अनुशासन ही विनय है। गुरुदेव ने पुकारा- भाई कहाँ हो? शिष्य ने, आपके जोधपुर की भाषा में जैसा कहते हैं, कहा- आयोसा। गुरु पुकारते रहे और शिष्य- “आयोसा, आयोसा" कहता रहा। सुनना और सुने का अनसुना करना, यह आज्ञा का उल्लंघन है, अनुशासनहीनता है, अविनय है। समय का उल्लंघन करने वाला, समय को टालकर काम करने वाला भी शास्त्रों की दृष्टि में विनय नहीं कहलाता। गुरुवर को प्यास अभी लगी है और शिष्य जी कहें कि दस गाथा पूरी करके आऊं। दवा की जरूरत अभी है और वह बाद में दी जाए तो....! धर्म की आराधना की जरूरत आज है और आज नहीं कर पाए तो कल किसने देखा है? एक पल की भी किसे खबर है? पता नहीं आने वाले क्षण में स्थिति क्या होगी? कृतघ्नता त्यागें
अनुशासनहीनता का एक रूप है- कृतघ्नता । नीतिकार कहते हैं"बुराइयों का मूल कारण मनुष्य की कृतघ्नता है।''
शास्त्र कह रहा है--- मानव! विनय धर्म का मूल है। यदि तेरे जीवन में शिष्टाचार, अनुशासन, कृतज्ञता आदि विनय रूप गुण नहीं आए तो कितना ही पद-सम्मान प्राप्त कर ले, तेरी गति सधरने वाली नहीं है। आपने पचासों दृष्टांत देखे-सुने-भोगे हैं और घर-गृहस्थी छोड़ने के बाद हम भी सुनते हैं। एक मामूली सी बात को लेकर सन्तान माता-पिता से बोलना बंद कर देती है। उन्हें दु:ख पहुँचाने की बातें भी कानों में आती हैं। लड़कों के पास लाखों की माया है, पर माता-पिता के नसीब में दो समय का पूरा खाना भी नहीं है।
सुणिया भावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य। विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छतो हियमप्पणो ।। उत्तरा.1.6 ।। कुत्ती सूअर नर-दुर्गति सुन, विज्ञ विचारो निज मन में। अपने हित की इच्छा हो तो, तुम धरो विनय इस जीवन में।।
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