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________________ 356 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक पड़ेगा ही काल रा जाया - जनमिया, थोड़ी पढाई कई कर लीवी, ऐडी अकड़ाई। देखो तो राम-राम करणां सू ही गया।" ऐसे व्यक्ति हर बात में लड़ने को तत्पर रहते हैं। ऐसे अनेक अविनीत- दुर्विनीत कदम-कदम पर यहाँ मिल जाएंगे। बन्धुओं! दुर्गुणों को छोड़ो। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्मगुणों के साधन विनय से प्रीति करो। विनय तप है, विनय धर्म है, विनय ही जीवन निर्माण की कला है। विनयवान बनो, धर्म की आराधना करो, तप की साधना करो तभी सुख, शांति व आनन्द की प्राप्ति हो सकेगी। विनय सर्वत्र आवश्यक विनय का व्यवहार श्रमण और श्रावक सभी के लिए आवश्यक है। घर, परिवार, मुहल्ले, समाज सर्वत्र ही विनय जरूरी है। कई व्यक्ति आते हैं। जो अनुभव सुनाते हैं कि जिनको आप लोगों ने अध्यक्ष बनाया है, मंत्री बनाया है— वे जब कार्यकारिणी आदि की बैठकें बुलाते हैं तो जो कुछ और जैसा कुछ वहाँ होता है, सुनकर अचम्भित रह जाते हैं। सोचता हूँ यह ओसवालों की, जैन समाज की मीटिंग है या और कुछ । संस्कार निर्माण और विनय विनय जितना भूतकाल में आवश्यक था, उससे भी अधिक उसकी वर्तमान में आवश्यकता है। पहले तो पूर्वजों से, बड़े-बूढ़ों से घर में, गुरुजनों से शाला में संस्कार मिल जाते थे पर आज ? आज समाज शनैः शनै: संस्कारहीन बनता जा रहा है। शिशु थोड़ा सा बड़ा हुआ और ढाई तीन वर्ष की उम्र में ही उसे स्कूल भेज दिया जाता है । बहनें खुश कि चलो झंझट मिटी, तीन-चार घण्टे तो आराम से बीतेंगे। आप लोग भी खुश कि बच्चा स्कूल जा रहा है, पढ़ रहा है, सीख रहा है। जिस उम्र में बच्चे की मां की गोद में स्नेह - ममता प्राप्त होनी चाहिए, पिता की छत्र-छाया, प्यार-दुलार संस्कार मिलना चाहिए, आज उस बच्चे को स्कूल भेजकर भारी बोझ से दबा दिया जाता है। भारभूत बना वह ऐसी शिक्षा प्राप्त कर रहा है, जो उसके जीवन में शायद ही काम आए। संस्कार निर्माण का तो वहाँ प्रश्न ही कहाँ है ? अब सोचिए बच्चों में संस्कार कहां से आएंगे, कहाँ से सीखेगा जीवन-निर्माण की कला वह बच्चा ? क्या यही बच्चे की समुचित व्यवस्था है ? विनय- शिष्टाचार उत्तराध्ययन सूत्र में शिष्टाचार रूप विनय का वर्णन करते हुए प्रभु महावीर ने बताया है कि विनयशील साधक को अपने गुरु के समक्ष कैसे बैठना चाहिए ? सूत्र का कथन जितना श्रमण जीवन के लिए उपयोगी है, उतना ही आप श्रावकों के जीवन के लिए भी हितकर है। कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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