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________________ | 350 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क तो गुणों को दूषित करने वाला दुर्गुण है अहंकार । अवगुणों में गुणों को सुगन्ध डालने वाला कलारूप साधन है 'विनय' । सम्पूर्ण श्रेष्ठताओं को विकारी भाव देने का दोष अहंकार में है। जैसे दूध में डाली गई काचरी, हलवे में पड़ा हुआ जहर वस्तु को विषाक्त बनाकर उन्हें अखाद्य-अपेय बना देता है, उसी तरह मोक्षमार्ग में चरण बढ़ाने वाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुणों को भी अहंकार विषाक्त बना देता है। इसीलिए नीतिकार कहते हैं-- नगर में प्रवेश करने के जैसे दरवाजे होते हैं, नदी-तालाब में उतरने के लिए जैसे घाट बनाये जाते हैं, जंगल में प्रवेश हेतु जैसे पगडण्डी होती है उसी तरह ज्ञान, दर्शन, चारित्र की योग्यता-पात्रता लाने के लिए विनय दरवाजा है, घाट है, पगडण्डी है। इसलिए अर्थ किया जाता है- 'विशेषेण नयति प्रापयति ज्ञानादिगुणमसौ विनयः।' अर्थात् जो जीवन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुणों को विशेष रूप से खींचकर लाये, उसे विनय कहते हैं। विनय का सामान्य, सरल, बोधात्मक अर्थ भी समाधान के रूप में कहा जा रहा है- 'विशिष्टो विविधो वा नयो नीति, विनयः। विविध प्रकार के या विशिष्ट नय अर्थात् नीति मार्ग को भी विनय कहते हैं। यह विनय किनका करना चाहिये? इस विनय के कौन अधिकारी हैं? इसके ज्ञान विनय,दर्शन विनय, चारित्र विनय और तप विनय के रूप में चार भेद किये जाते हैं। पाँच भेद रूप भी कथन किया जाता है। अनुवर्तन, प्रवर्तन, अनुशासन, सुश्रूषा और शिष्टाचार, ये विनय के पाँच भेद किये गये हैं। एक विनयवाद है। तीर्थकर प्रभु महावीर के समय में ३६३ वाद कहे जाते थे। उनमें एक वाद का नाम विनयवाद था। क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद- ये चार भेद अन्य मतों में किये गए हैं, जिनमें एक मत है "विनयवाद'। उस मत में चाहे कोई ज्ञानी है, गुणी है, अवगुणी है, श्रेष्ठ है, हीन है, दीन है, निर्धन है, प्रत्येक प्राणी का विनय करना चाहिए। राजाधिराज को, महामंत्री को, शीलवान सज्जन पुरुषों को और श्रेष्ठिवर्यों को नमस्कार करने के साथ वहाँ कुत्ते-बिल्ली को भी नमस्कार किया गया है। उनके अनुसार जो भी आत्मा है, वह परमात्मा है। इस मत के अनुसार देवता, राजा, साधु, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता तथा पिता को मन, वचन व काया से देशकालानुसार विनय किया जाता है। किन्तु यह विनय ज्ञानपूर्वक नहीं होता विनय के सात भेद विनय को लेकर प्रभु महावीर ने सात भेद किये हैं- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मन विनय, वचन विनय, काया विनय और लोकोपचार विनय। विनय किनका करना चाहिए, इस संबंध को लेकर उन्होंने तीन सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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