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जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क पूर्वक हंसना २. गुरु आदि के साथ वक्रोक्ति या व्यंग्यपूर्वक खुलमखुल्ला बोलना या मुँह फट होना ३. काम कथा करना ४. काम का उपदेश देना और ५. काम की प्रशंसा करना । कान्दर्पी भावना, अभियोगी भावना, किल्विषिकी भावना, आसुरी भावना, सम्मोहा भावना इन पांच भावनाओं का आचरण नहीं करना चाहिए ।
इय पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए ।
छत्तीस उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंमए । 136.268 ।। भवसिद्धिक जीवों के लिए उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों को प्रकट करके भगवान महावीर प्रभु निर्वाण को प्राप्त हुए। उपसंहार
उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि इसकी भाषा और कथन शैली विलक्षण और विशिष्ट है। इसके कुछ अध्ययन प्रश्नोत्तर शैली में, कुछ कथानक के रूप में तो कुछ उपदेशात्मक हैं। इन सभी अध्ययनों में वीतरागवाणी का निर्मल प्रवाह प्रवाहित है। इसकी भाषा शैली में काव्यात्मकता और लालित्य है। स्थान-स्थान पर उपमा अलंकार एवं दृष्टान्तों की भरमार है, जिससे कथन शैली में सरलता व रोचकता के साथ-साथ चमत्कारिता भी पैदा हुई है।
चारों अनुयोगों का सुन्दर समन्वय उत्तराध्ययन में प्राप्त होता है। वैसे इसे धर्मकथानुयोग में परिगणित किया गया है, क्योंकि इसके छत्तीस में से चौदह अध्ययन धर्मकथात्मक हैं। उत्तराध्ययन में जीव, अजीव, कर्मवाद, षड्द्रव्य, नवतत्त्व, पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा प्रभृति सभी विषयों का समुचित रूप से प्रतिपादन हुआ है।
उत्तराध्ययन पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, संस्कृत भाषाओं में अनेक टीकाएँ और उसके पश्चात् विपुल मात्रा में हिन्दी अनुवाद और विवेचन लिखे गए हैं, जो इस आगम की लोकप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण है । भवसिद्धिक और परिमित संसारी जीव इसका नित्य स्वाध्याय कर अपने जीवन को आध्यात्मिक आलोक से आलोकित कर सकेंगे, अतः प्रतिदिन इस सूत्र का अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। प्रत्येक धर्मप्रेमी बन्धु को प्रतिदिन इस सूत्र का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। यह संभव नहीं हो तो कम से कम एक अध्ययन का स्वाध्याय सामायिक के साथ करना आवश्यक है । ऐसा मेरा नम्र निवेदन है। - पूर्व न्यायाधीश, राजस्थान उच्च न्यायालय, पूर्व अध्यक्ष, राज्य आयोग उपभोक्ता संरक्षण, राजस्थान संरक्षक - अ. भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ "चन्दन" बी-2 रोड़, पावटा, जोधपुर
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