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________________ ला 1344 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए ।।36.2।। यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है और अजीव देश रूप आकाश ही जिसमें है वह अलोक कहा गया है। दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। परूवणा तेसिं भवे जीवाणमजीवाण य ।। 36.3 ।। जीव और अजीव द्रव्य का प्रतिपादन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार प्रकारों से होता है। - अजीव के दो भेद हैं-१. रूपी २. अरूपी। अरूपी अजीव के दस भेद हैं- धर्मास्तिकाय के १. स्कंध २. देश ३. प्रदेश. अधर्मास्तिकाय के १. स्कन्ध २. देश ३.प्रदेश, आकाशास्तिकाय के १. स्कन्ध २. देश ३. प्रदेश और १०. काल। रूपी अजीव के चार भेद हैं- स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को लोक प्रमाण कहा गया है। आकाश लोक और अलोक दोनों में है। धर्म, अधर्म और आकाशास्तिकाय, ये तीनों द्रव्य अनादि अनन्त हैं । काल प्रवाह की अपेक्षा अनादि अनन्त है और आदेश की अपेक्षा सादि सान्त है। सन्तति प्रवाह की अपेक्षा से पुद्गल के स्कन्ध अनादि अनन्त हैं तथा स्थिति की अपेक्षा सादि सान्त हैं। द्रव्य विभाग का वर्णन ३६.११ से ३६.४७ तक किया गया है। जिसके अनुसार रूपी अजीव द्रव्यों का परिणमन वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से पांच प्रकार का है। जीव दो प्रकार हैं- १. संसारी २. सिद्ध। ३६.४९ से ३६.६७ तक सिद्ध जीवों के प्रकार और सिद्धत्व प्राप्ति का वर्णन है। लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसन्निया। संसारपारनित्थिन्ना सिद्धिं वरगई गया।। 36.67 सभी सिद्ध भगवान संसार के उस पार पहुंच कर ज्ञान, दर्शन के उपयोग से सर्वोत्तम सिद्धगति को प्राप्त कर एक देश में ही रहे हुए हैं। ___ संसारी जीव त्रस और स्थावर रूप से दो प्रकार के हैं। स्थावर और त्रस के तीन-तीन भेद बताए गए हैं--- स्थावर- पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पति काय त्रस- तेजस्काय, वायुकाय और द्वीन्द्रियादि (उदार)। आगमों में कई स्थानों पर तेजस्काय और वायुकाय को पांच स्थावरों में माना है, किन्तु यहां दोनों को त्रस में परिगणित किया गया है। कारण कि चलन क्रिया देखकर व्यवहार से इन्हें त्रस कह दिया गया है। उत्तराध्ययन का वैशिष्ट्य इस विभाजन से पता चलता है। उदार त्रस चार प्रकार के हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इन उदार त्रस काय जीवों का वर्णन 36.151 से 36.169 तक है। पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं- 1. नैरयिक 2. तिर्यंच 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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