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________________ | उत्तराध्ययन सूत्र ARGAHRAICSE 343 द्वारों के माध्यम से लेश्याओं को व्यवस्थित रूप दिया गया है- १. नाम द्वार २. वर्ण द्वार ३. रस द्वार ४. गन्ध द्वार ५. स्पर्श द्वार ६. परिणाम द्वार ७. लक्षण द्वार ८. स्थान द्वार ९. स्थिति द्वार १०. गति द्वार ११. आयु द्वार। जैनाचार्यों ने लेश्या की निम्न परिभाषाएँ बताई हैं१. कषाय से अनुरंजित आत्म-परिणाम। २. मन-वचन-काया के योगों का परिणाम या योग प्रवृत्ति। ३. काले आदि रंगों के सान्निध्य से स्फटिक की तरह राग-द्वेष कषाय के संयोग से आत्मा का तदनुरूप परिणमन हो जाना। ४. कर्म के साथ आत्मा को संश्लिष्ट करके कर्म-बंधन की स्थिति बनाने वाली। किण्हा नीला काऊ तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो दुग्गइं उववज्जइ बहुसो ।।34.56 ।। कृष्ण, नील और कापोत तीनों अधर्म लेश्याएँ हैं, इनसे जीव दुर्गति में जाता है। तेऊ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गइं उववज्जइ बहुसो ।।34.57 ।। तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीन धर्म लेश्याएँ हैं, इनसे जीव सुगति में जाता है। लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु। न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स ।।34.58 ।। सभी लेश्याओं की प्रथम समय की परिणति में किसी भी जीव की परभव में उत्पत्ति नहीं होती। लेसाहिं सव्वाहिं चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स ।।34.59 ।। सभी लेश्याओं की अन्तिम समय की परिणति में किसी भी जीव की परभव में उत्पत्ति नहीं होती। तम्हा एयाण लेसाणं अणुभागे वियाणिया। अप्पसत्थाओ वज्जित्ता पसत्थाओ अहिढेज्जासि।।34.61 ।। अत: लेश्याओं के अनुभाव रस को जानकर अप्रशस्त लेश्याओं को छोड़कर प्रशस्त लेश्या अंगीकार करनी चाहिए। 7. जीव और अजीव तत्त्व (जीवाजीवविभत्ती-छत्तीसवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में जीव और अजीव का पृथक्करण किया गया है। दूसरे शब्दों में जीव-अजीव को विभक्त करके उनका सम्यक प्रकार से निरूपण किया गया है। इस अध्ययन के माध्यम से साधक जीव और अजीव का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके संयम में प्रयत्नशील हो सकता है। जीव और अजीव का सम्यक् परिज्ञान होने पर ही वह गति, पुण्य, पाप, संवेग, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष को जान सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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