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________________ 1338 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क स्वाध्याय करता है। 8. साधक-आत्मा की अनासक्ति (पमायट्ठाणं-बत्तीसवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में प्रमाद की विस्तृत व्याख्या और मोक्ष के उपाय बताए गए हैं। इसका महत्त्वपूर्ण उद्घोष यह है कि शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श आदि का दोष नहीं है, दोष है आत्मा का। आत्मा जब राग-द्वेष आदि परिणामों के द्वारा प्रमादी बनकर किसी पदार्थ के प्रति राग अथवा द्वेष करता है, तभी वह बन्धन में बन्धता है और दुःखों में जकड़ जाता है। अलिप्तता और अनासक्ति इसके मूल स्वर हैं। वीतराग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म का क्षय करके कृतकृत्य हो जाते हैं। इस अध्ययन में जीव के साथ लगे हुए समस्त दु:खों से मुक्त होने का मार्ग बताया गया है, जिसे सम्यक् प्रकार से अंगीकार करके जीव अत्यन्त सुखी हो जाते हैं। रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई मरणं वयंति ।।32.7।। राग और द्वेष ये दोनों कर्म के बीज हैं, कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं, कर्म ही जन्म-मरण के मूल हैं और जन्म-मरण ही दु:ख है। रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पए भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ।।32.34 ।। रूप से विरक्त हआ मनष्य शोकरहित हो जाता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल का पत्ता लिप्त नहीं होता उसी प्रकार संसार में रहते हुए भी वह विरक्त पुरुष दु:ख समूह से लिप्त नहीं होता। समो य जो तेस् य वीयरागो।32.61 || जो मनुष्य मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में सम रहता है, वह वीतराग है। एविंदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेन्ति किंचि।।32.100।। इन्द्रियों और मन के विषय, रागी पुरुषों के लिए ही दुःख के कारण होते हैं। ये विषय वीतरागों को कुछ भी दुःख नहीं दे सकते। 9. मोक्षमार्ग प्राप्त करने का उत्तम मार्ग (अणगार मग्गगई- पैंतीसवाँ अध्ययन) यह अध्ययन साधु-आचार का प्रतिपादन करता है। साधु हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह की इच्छा और लोभ को त्याग दे। कैसे स्थान में नहीं रहना चाहिए और कैसे स्थान में रहना चाहिए, इसका भी इस अध्ययन में वर्णन किया गया है। भोजन के संबंध में मार्गदर्शन दिया गया है। स्वाद के लिए भोजन नहीं करे, किन्तु संयम-निर्वाह के लिए भोजन करे। क्रय-विक्रय की साधु को इच्छा नहीं करना चाहिए। अर्चना, वन्दना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन में इच्छा नहीं करे। मृत्यु का समय आने पर उत्तम साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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