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________________ | उत्तराध्ययन सूत्र 337 और काय गुप्तियाँ हैं। साधु को आलम्बन, काल, मार्ग और यतना रूपी कारणों की शुद्धि के साथ गमन करना चाहिए, यह ईर्या समिति है। ईर्या समिति में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आलम्बन हैं। काल दिन का समय है और कुमार्ग का त्याग करना मार्ग है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सम्यक् पालना-ये चार यतनाएँ है। चलते समय इन्द्रियों के विषयों और वाचना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय को वर्जन करता हुआ चले। ईर्या समिति में तन्मय होकर और उसी में उपयोग रख कर चले। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, निन्दा और विकथा के प्रति सतत उपयोग युक्त होकर रहे। परिमित और निर्वद्य भाषा बोलना भाषा समिति है। आहार, उपधि और शय्या की गवेषणा, ग्रहणैषणा तथा परिभोगैषणा शुद्धता पूर्वक करना, यह एषणा समिति है। उपकरणों को ग्रहण करते ओर रखते हुए मुनि द्वारा विधि का पालन करना, यह आदान निक्षेपण समिति है। मल-मूत्र, कफ, नाक व शरीर का मैल,पसीना, आहार, उपकरण आदि का विवेकपूर्वक स्थण्डिल भूमि में परित्याग करना परिष्ठापना समिति है। इस अध्ययन में पांचों समितियों का वर्णन संक्षेप में किया गया है। गुप्तियाँ तीन हैं- १. मनोगुप्ति २. वचनगुप्ति ३. कायगुप्ति। मन गुप्ति के १. सत्य २. असत्य ३. मिश्र और ४ असत्यामृषा, ये चार प्रकार हैं। संयमी साधु को संरम्भ, समारंभ और आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए मन को नियन्त्रित रखना आवश्यक है। वचनगप्ति भी मनोगप्ति के समान चार प्रकार की है। साधु को संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त वाणी को रोकना चाहिए। काया से संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की प्रवृत्ति को रोकना कायगुप्ति है। ___ जो पंडित मुनि पांचों समितियों के पालन में प्रवृत्त होकर और अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर सम्यक् आचरण करता है, वह समस्त संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। 7. मुनि की समाचारी (समाचारी-छब्बीसवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में सभी कर्मों से मुक्त करने वाली समाचारी का वर्णन है। जिसका आचरण करके कई निर्ग्रन्थ संसार सागर से तिर गए। साधुओं की दशांग समाचारी इस प्रकार है- १. आवश्यकी २. नैषेधिकी ३. आपृच्छनी ४. प्रति पृच्छनी ५. छन्दना ६. इच्छाकार ७. मिच्छाकार ८. तथाकार ९. अभ्युत्थान १०. उपसम्पदा। मुनिजीवन की साधारण दैनिक क्रिया का विधान दशांग समाचारी में है। बुद्धिमान मुनि को दिन के चार भाग करके उन चारों भागों में उत्तर गुणों की वृद्धि करनी चाहिए। पहले प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में भिक्षाचरी और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय करना चाहिए। बुद्धिमान मुनि रात्रि के भी चार भाग करता है- प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में निद्रा और चौथे प्रहर में पुन: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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