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________________ जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क प्रश्न हो सकता है कि वैदिक वाङ्मय की तरह जैन आगम साहित्य पूर्ण रूप से उपलब्ध क्यों नहीं है? वह विच्छिन्न क्यों हो गया ? इसका मूल कारण है देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के पूर्व आगम- साहित्य व्यवस्थित रूप से लिखा नहीं गया । देवर्द्धिगणी के पूर्व जो आगम वाचनाएँ हुई, उनमें आगमों का लेखन हुआ हो, ऐसा स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। वह श्रुति रूप में ही चलता रहा। प्रतिभा सम्पन्न योग्य शिष्य के अभाव में गुरु ने वह ज्ञान शिष्य को नहीं बताया जिसके कारण श्रुत साहित्य धीरे-धीरे विस्मृत होता गया । आगम लेखन - युग जैन दृष्टि से चौदह पूर्वो का लेखन कभी हुआ ही नहीं । उनके लेखन के लिए कितनी स्याही अपेक्षित है, इसकी कल्पना अवश्य ही की गई है। वीर निर्वाण संवत् ८२७ से ८४० में जो मथुरा और वल्लभी में सम्मेलन हुआ, उस समय एकादश अंगों को व्यवस्थित किया गया। उस समय आर्य रक्षित ने 'अनुयोग द्वार' सूत्र की रचना की । उसमें द्रव्य श्रुत के लिए 'पत्तय पोत्थय लिहिअं' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके पूर्व आगम लिखने का प्रमाण प्राप्त नहीं है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण की ९वीं शताब्दी के अंत में आगमों के लेखन की परम्परा चली, परन्तु आगमों को लिपिबद्ध करने का स्पष्ट संकेत देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय से मिलता है । 20 आगमों को लिपिबद्ध कर लेने पर भी एक मान्यता यह रही कि श्रमण अपने हाथ से पुस्तक लिख नहीं सकते और न अपने साथ रख ही सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने में निम्न दोष लगने की संभावना रहती है१. अक्षर आदि लिखने से कुन्थु आदि त्रस जीवों की हिंसा होती है एतदर्थ पुस्तक लिखना संयम विराधना का कारण है। २. पुस्तकों को एक ग्राम से दूसरे ग्राम ले जाते समय कन्धे छिल जाते है, व्रण हो जाते है। ३. उनके छिद्रों की सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखना नहीं हो सकती । ४. मार्ग में वजन बढ़ जाता है। ५. कुन्थु आदि त्रस जीवों का आश्रय होने से अधिकरण हैं या चोर आदि के चुराये जाने पर अधिकरण हो जाते हैं। ६. तीर्थकरों ने पुस्तक नामक उपाधि रखने की अनुमति नहीं दी है। ७. पुस्तकें पास में होने से स्वाध्याय में प्रमाद होता है। अतः साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और अक्षर लिखते हैं, उन्हें उतने ही चतुर्लघुकों का प्रायश्चित आता है और आज्ञा आदि दोष लगते हैं। यही कारण है कि लेखनकला का परिज्ञान होने पर भी आगमों का लेखन नहीं किया गया था । साधु के लिए स्वाध्याय और ध्यान का विधान मिलता है, पर कहीं पर भी लिखने का विधान प्राप्त नहीं होता । ध्यान कोष्ठोपगत. स्वाध्याय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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