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| जैन आगम-साहित्य : एक दृष्टिपात
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को तपाया था । 'प्रश्न व्याकरण' में आस्रव और संवर का सजीव चित्रण है । 'विपाक' में पुण्य-पाप के फल का वर्णन है । 'उत्तराध्ययन' में अध्यात्म चिन्तन का स्वर मुखरित है। 'राजप्रश्नीय' में तर्क के द्वारा आत्मा की संसिद्धि की गई है। इस प्रकार आगमों में सर्वत्र प्रेरणाप्रद, जीवनस्पर्शी, अध्यात्म रस से सुस्निग्ध सरस विचारों का प्रवाह प्रवाहित हो रहा है। आगम वाचनाएँ
श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् आगम संकलन हेतु पाँच वाचनाएँ हुई हैं। प्रथम वाचना वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी में पाटलिपुत्र में हुई । द्वितीय वाचना ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर हुई । तृतीय वाचना वीर निर्वाण ८२७ से ८४० के मध्य मथुरा में हुई । चतुर्थ वाचना उसी समय वल्लभी सौराष्ट्र में हुई और पाँचवीं वाचना वीर निर्वाण की दशवी शताब्दी में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः वल्लभी में हुई। इसके पश्चात् आगमों की पुन: कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई ।
आगम-विच्छेद का क्रम
श्वेताम्बर मान्यतानुसार वीर निर्वाण १७० वर्ष के पश्चात् भद्रबाहु स्वर्गस्थ हुए। अर्थ की दृष्टि से अन्तिम चार पूर्व उनके साथ ही नष्ट हो गये । दिगम्बर मान्यता के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् हुआ था ।
वीर निर्वाण सं. २१६ में स्थूलभद्र स्वर्गस्थ हुए। वे शाब्दिक दृष्टि से अन्तिम चार पूर्व के ज्ञाता थे । वे चार पूर्व भी उनके साथ ही नष्ट हो गये । आर्य वज्र स्वामी तक दस पूर्वो की परम्परा चली। वे वीर निर्वाण ५५१ (वि. सं. ८१) में स्वर्ग पधारे। उस समय दसवाँ पूर्व नष्ट हो गया । दुर्बलिका पुष्यमित्र ९ पूर्वो के ज्ञाता थे। उनका स्वर्गवास वीर निर्वाण ६०४ (वि. सं. १३४) में हुआ। उनके साथ ही नवाँ पूर्व भी विच्छिन्न हो गया ।
इस प्रकार पूर्वो का विच्छेद क्रम देवर्धिगणी क्षमाश्रमण तक चलता रहा। स्वयं देवर्धिगणी एक पूर्व से अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। आगम साहित्य का बहुत सा भाग लुप्त होने पर भी आगमों का कुछ मौलिक भाग आज भी सुरक्षित है। किन्तु दिगम्बर परम्परा की यह धारणा नहीं है। श्वेताम्बर समाज मानता है कि आगम संकलन के समय उसके मौलिक रूप में कुछ अन्तर अवश्य ही आया है । उत्तरवर्ती घटनाओं एवं विचारणाओं का उसमें समावेश किया गया है, जिसका स्पष्ट प्रमाण 'स्थानांग' में सात निह्नवों और नव गणों का उल्लेख है। वर्तमान में 'प्रश्नव्याकरण' का मौलिक विषय वर्णन भी उपलब्ध नहीं है तथापि 'अंग' साहित्य का अत्यधिक अंश मौलिक है। भाषा दृष्टि से भी आगम प्राचीन सिद्ध हो चुके हैं। 'आचारांग' के प्रथम श्रुत स्कन्ध की भाषा को भाषाशास्त्री पच्चीस सौ वर्ष पर्व की मानते हैं। -
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