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________________ 1318 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका पूर्वभव में आर्या पुष्पचूलिका के समक्ष ही चारित्र धर्म स्वीकार कर ज्ञान प्राप्त किया था। वहिदशा (वृष्णिदशा) यह अन्तिम उपांग सूत्र है। इसमें निषधकुमार आदि वृष्णिवंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन बारह अध्ययनों में किया गया है। नन्दीचूर्णि के अनुसार प्रस्तुत उपांग का नाम अंधकवृष्णिदशा था। कालान्तर में उसमें से 'अंधक' शब्द के लुप्त हो जाने से केवल 'वृष्णिदशा' ही अवशेष रहा। वर्तमान में यह इसी नाम से विख्यात है। वंश के आधार पर यह नामकरण होना, सिद्ध होता है। पुष्पचूलिका आगम की भांति इसमें भी शिष्य जम्बू की जिज्ञासा पर आर्य सुधर्मा स्वामी बारह अध्ययनों में क्रमश: निषधकुमार, मातली कुमार, वहकुमार, वहेकुमार, प्रगति(पगय) कुमार, ज्योति (युक्ति) कुमार, दशरथ कुमार, दृढरथ कुमार, महाधनुकुमार, सप्तधनुकुमार, दशधनुकुमार, शतधनकमार का वर्णन करते हैं। प्रथम अध्ययन में फरमाते हैं द्वारिका नगरी में वासुदेव कृष्ण राज्य करते थे। उनके ज्येष्ठ भ्राता बलदेव राजा की रानी रेवती ने 'निषध' नामक पुत्र को जन्म दिया। यथासमय उसका पचास उत्तम राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ एवं आनन्दपूर्वक रहने लगा। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए अर्हन्त अरिष्टनेमी का द्वारिका नगरी में पदार्पण हुआ। श्रीकृष्ण सपरिवार दल-बल सहित प्रभु के दर्शनार्थ गए। निषध कुमार भी भगवान को वन्दन करने पहुँचा। कुमार के दिव्य रूप-सौन्दर्य को देखकर प्रभु के प्रधान शिष्य वरदत्त अणगार को जिज्ञासा उत्पन्न हई। तब अर्हन्त अरिष्टनेमी समाधान करते हैं कि रोहीतक नगर के महाबल राजा एवं रानी पद्मावती के वीरांगद नामक पुत्र था। युवावस्था में उसका बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। मानवीय कामभोगों को भोगते हुए समय बीत रहा था। एक दिन आचार्य सिद्धार्थ का नगर में पदार्पण हुआ। अन्य परिषदा के साथ वीरांगद भी दर्शनार्थ पहुँचा। धर्मदेशना श्रवण कर जाग्रत हुआ तथा माता-पिता की अनुमति से श्रमण दीक्षा अंगीकार की। अनेक प्रकार के तपादि अनुष्ठान किए, ग्यारह अंगों का अध्ययन करते हुए ४५ वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया। अन्त में दो माह की संलेखना कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त होकर ब्रह्म नामक पांचवें देवलोक में देव बना। वहां से देवायु पूर्ण करके यहाँ निषधकुमार के रूप में ऐसा कमनीय रूप एवं मानवीय ऋद्धि प्राप्त की है। निषध कुमार का यह पूर्वभव सुनकर वरदत्त अणगार को उसके भावी जीवन के प्रति जिज्ञासा हुई, तब भगवान ने फरमाया- यह मेरे समीप दीक्षित होकर, नौ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन कर, अन्त में अनशन करके सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र से मुक्त होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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