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________________ | पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा म 317 दिखाई देती थी, अत: उसका विवाह नहीं हो सका। एक बार पुरुषादानी अर्हत् पार्श्व प्रभु का आगमन हुआ। उनकी धर्मदेशना श्रवण कर भूता दारिका अति प्रसन्न हुई तथा अपने माता-पिता की आज्ञा-अनुमति लेकर आर्या पुष्पचूलिका के समक्ष श्रमणी दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षापोरान्त कुछ समय के पश्चात् वह भूता आर्यिका शरीर बकुशिका हो गई अर्थात् शरीर को सेवा सुश्रूषा में लग गई। बार-बार शरीर को धोती, स्वच्छ करती। साध्वाचार के विरुद्ध ऐसे कृत्य को देखकर आर्या पुष्पचूलिका ने भूता आर्यिका को समझाया तथा श्रमणाचार का महत्त्व बताते हुए उसे पापों की आलोचना कर शुद्धीकरण करने की प्रेरणा / आज्ञा दी। किन्तु गुरुवर्या की आज्ञा अवहेलना कर वह स्वच्छन्द-मति होकर स्वतंत्र रहने लगी। पूर्ववत् आचार-व्यवहार रखते हुए उस भूता आर्या ने विविध तपश्चर्या करके अनेक वर्षों तक श्रमणी पर्याय का पालन किया। अन्त में बिना आलोचना किए ही मरकर सौधर्मकल्प नामक प्रथम देवलोक में श्रीदेवी के रूप में उत्पन्न हुई। वहाँ की एक पल्योपम की आयु स्थिति पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी एवं वहाँ से सिद्धि प्राप्त करेंगी। __इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनों में क्रमश: हीदेवी, धृतिदेवी, कीर्तिदेवी, बुद्धिदेवी, लक्ष्मीदेवी, इलादेवी, सूरादेवी, रसदेवी, गन्धदेवी का वर्णन है। सभी श्रीदेवी के समान सौधर्मकल्प में निवास करने वाली थी। सभी पूर्वभव में भगवान पार्श्वनाथ के शासन में आर्या पुष्पचूलिका के समक्ष दीक्षित हुई और भूता आर्या की भांति सभी का शरीर-शुद्धि पर विशेष लक्ष्य था। अन्तत: सभी देवियां देवलोक से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगी। कहा जाता है कि श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी आदि जितनी भी विशिष्ट शक्तियाँ हैं, उनकी ये अधिष्ठात्री देवियाँ है। इस प्रकार प्रस्तुत उपांग सूत्र में प्रभु पार्श्व के युगकालीन साध्वियों की जीवन कथाएँ हैं। कथाओं के माध्यम से साध्वियों का पूर्वभव एवं परभव प्रतिपादित हुआ है। तत्कालीन जीवन का चित्रण कम हुआ है तथापि तयुगीन साध्वियों का संक्षिप्त जीवन-चरित्र मिलना भी अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। यहां एक बात ध्वनित होती है कि भगवान पार्श्वनाथ के शासनकाल के साधु-साध्वी ऋजुप्राज्ञ होते थे, अत: वे बहुमूल्य रंगीन वस्त्रादि धारण करते थे, किन्तु श्रमणाचार में शिथिलता क्षम्य नहीं थी, शरीर शुद्धि पर पूर्ण प्रतिबन्ध था। प्रस्तुत आगम का नामकरण संभवत: आर्यिका पुष्पचूलिका के आधार पर किया गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। इसमें वर्णित सभी देवियों ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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