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________________ 310 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क कल्पनोपक्रम ही गतिशील रहे हैं, जिनका प्रामाण्य सन्दिग्धता से परे नहीं होता । प्राकृत विद्या एवं आर्हत श्रुत क्षेत्र के प्रबुद्ध, उत्साही, अन्तःस्पर्शी प्रज्ञा के धनी मनीषी प्राचीन एवं अर्वाचीन वाङ्मय के आलोक में समाधान खोजने का अविश्रान्त प्रयास करें, यह वांछित है । महाकवि भवभूति के शब्दों में १. २. ३. ४. "संपत्स्यते मम तु कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधि र्विपुला च पृथ्वी । ।" " समाधान प्राप्त करने की दिशा में सदा आशावान रहना ही चाहिए। संदर्भ इह पुरुषस्य द्वादश अंगानि भवन्ति, तद्यथा द्वौ पादौ द्वे जंघे, द्वे अरुणी, द्वे गात्रार्द्धे, द्वौ बाहू, ग्रीवा, शिरश्च । एवं श्रुतपुरुषस्यापि परमपुरुषस्याचारादीनि द्वादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि तथा चोक्तम् पायदुगं जंघोरू, गायदुगद्धं तु दोय बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो, बारस अंगेसु य पविट्ठो ॥ श्रुतपुरुषस्यांगेषु प्रविष्ट्म् - अंगप्रविष्टम् । अंगभावेन व्यवस्थिते श्रुतभेद छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुः, निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।। शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् । ।। अभिधान राजेन्द्र कोष भाग १, पृष्ठ ३८ तस्मात् सांगमधीत्यैव, ब्रह्मलोके महीयते ।। पाणिनीय शिक्षा, ४१–४२ पुराण -- न्याय मीमांसा - धर्मशास्त्रांग मिश्रिताः । स्मृति १.३ वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ याज्ञवल्क्य, उत्तररामचरितम्, प्रस्तावना - शारदा पुस्तक मन्दिर, सरदारशहर - 331403, जिला- चुरू (राज.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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