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________________ | 276 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक आचार्य श्रीचन्द्र के समय चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्र सातवें अंग के उपांग स्थान को प्राप्त कर चुका था, लेकिन निरयावलिका आदि पांच सूत्र निश्चित रूप से उपांग संज्ञा को प्राप्त नहीं हुए थे। यद्यपि उपासकदशा से चन्द्रप्रज्ञप्ति का एवं पीछे के पांच अंगों से निरियावलिका आदि सूत्रों का विषय-संबंध कोई स्पष्ट नहीं होता है। आचार्य जिनप्रभ जिन्होंने ई.१३०६ में विधिमार्गप्रपा ग्रंथ की रचना की थी। उसमें स्पष्ट रूप से १२ अंगों के साथ १२ उपांगों का जिस अंग का जो उपांग है निर्देश किया है एवं आगमों का अंग, उपांग, मूल और छेद रूप में विभाजन सर्वप्रथम इस ग्रंथ में उपलब्ध होता है। इस तरह जो सूत्र आरंभ में तथा अंग सूत्रों के मध्य पढाये जाते थे उनको छोड़कर शेष उपलब्ध आगम धीरे-धीरे उन-उन कारणों से (आगमों को श्रुत पुरुष की व्याख्या से समझाना आदि) उन-उन अंगों से संबंधित होते हुए स्पष्ट उपांग संज्ञा को प्राप्त हो गये। श्रमण जीवन में मूल सहायक होने से व आरंभ में पढाये जाने वाले आगम मूल संज्ञा को, अंगों के मध्य पढाये जाने वाले प्रायश्चित्त आदि के विधायक होने से छेद संज्ञा को, बाकी आगम उपांग संज्ञा को प्राप्त कर व्यवस्थित हो गये। इस तरह प्रज्ञापना सूत्र चौथे उपांग सूत्र रूप में व्यवस्थित हुआ। टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने भी अपनी प्रज्ञापना टीका में इसे चौथे अंग का उपांग कहा है। चौथे अंग से इसका संबंध इस प्रकार से कहा जा सकता है कि श्वासोच्छ्वास, संज्ञा, कषाय, इन्द्रिय, योग, क्रिया, कर्म, उपयोग समुद्घात आदि के विषय में जहां समवायांग सूत्र में संक्षेप में वर्णन है, प्रज्ञापना में उनका विस्तार से वर्णन है। प्रथम पद प्रज्ञापना, व्युत्क्रांति, अवगाहना, संस्थान, लेश्या, आहार, अवधि, वेदना पद का समवायांग में 'जाव' आदि शब्दों से संक्षेप हुआ है। उनका प्रज्ञापना में पूरा खुला पाठ दिया गया है। भगवती सूत्र में तो लगभग पूरे प्रज्ञापना सूत्र का समावेश हो जाता है। वह प्रज्ञापना से निकट संबंध रखता है। रचना शैली प्रज्ञापना सूत्र उपांगों में सबसे बड़ा सूत्र है। यह समग्र ग्रंथ ७८८७ श्लोक प्रमाण है। यह ३६ प्रकरणों में विभक्त है जिनको कि पद कहा गया है। समग्र ग्रंथ की रचना प्रश्नोत्तर रूप में है। यह आगम मुख्यतया गद्यात्मक है, कुछ भाग पद्य में भी है। इसमें आयी हुई गाथाओं का परिमाण २७२ है। प्रथम पद में काफी गाथाएं हैं। पदों के आरम्भ में विषय या द्वार सूचक और कहीं 'मध्य में तो कहीं उपसंहार सूचक गाथाएं आयी हुई हैं। विषयों का विस्तार से वर्णन है। प्राय: पदों में २४ दण्डकों में जीवों को विभाजित कर विषय निरूपण किया गया है। सूत्र की भाषा अर्द्धमागधी है जिस पर महाराष्ट्री प्राकृत का असर हुआ है, ऐसा आधुनिक विद्वान मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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