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| प्रज्ञापना सूत्र : एक समीक्षा छोड़कर अन्य प्राय: सभी पाठ प्राचीन नंदी के मान्य होने से ही उसको आगम की कोटि में रखा गया है। इसीलिये स्थविरावली को पढ़ने में अस्वाध्याय काल का वर्जन नहीं किया जाता है बाकी सूत्र को पढ़ने के लिये अस्वाध्याय काल का वर्जन किया जाता रहा है। नंदीसूत्र में वर्णित अंगबाह्य कालिक व उत्कालिक सूत्रों में जो क्रम दिया गया है उसका आधार उनका रचना काल क्रम रहा है, विशेष बाधक प्रमाण के अभाव में ऐसा मान लिया जाय तो ऐसा कहा जा सकता है कि प्रज्ञापना सूत्र की रचना दशवैकालिक,
औपपातिक, राजप्रश्नीय तथा जीवाभिगम सूत्र के बाद व नंदी, अनुयोगद्वार के पूर्व हुई है। अनुयोगद्वार सूत्र के कर्त्ता आर्यरक्षित थे। उनके पूर्व का आर्य स्थूलिभद्र तक का काल १० पूर्वधरों का काल रहा है। यह बात इतिहास से सिद्ध है तथा आर्य श्याम इसके मध्य होने वाले वाचक वंश में युगप्रधान है। यह निश्चित हो जाता है कि प्रज्ञापना १० पूर्वधर आर्य श्याम की रचना है। अत: तीनों ही श्वेताम्बर सम्प्रदायों में यह आगम रूप से मान्य है। क्या प्रज्ञापना चौथा उपांग सूत्र है
व्याख्या-साहित्य में प्रज्ञापना सूत्र को चौथे अंग समवायांग सूत्र का उपांग बताया गया है। स्थानांग, राजप्रश्नीय, नंदी, अनुयोगद्वार में श्रुत के दो भेद अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य (अनंग प्रविष्ट) किये हैं। समवायांग, उत्तराध्ययन व नंदी सूत्र में अंगबाह्य के 'प्रकीर्णक' भेद को भी बताया है।' आगमों में सिर्फ एक जगह निरियावलिका पंचक में अंगबाह्य के अर्थ में उपांग शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। आचार्य उमास्वाति ने भी तत्त्वार्थभाष्य में अंगबाह्य के सामान्य अर्थ में उपांग शब्द का प्रयोग किया है। जिस प्रकार वेद-वेदांगों के उपांग सूत्र किसी वेद या वेदांग विशेष से संबंधित नहीं होकर उनके पूरक या सहायक व्याख्या ग्रंथ रहे हैं, उसी प्रकार अंग सूत्रों के सहायक पूरक या अंगांशों को अंगबाह्य या उपांग सूत्र भी कहा जाता रहा है। धीरे-धीरे अंग बाह्यों को विशेष अंगों से संबंधित किया जाने लगा और विशेष अंगों के संबंध में उपांग संज्ञा कही जाने लगी। आरम्भ में निरयावलिका सूत्र में 'उपांग' शब्द अंगबाह्य के सामान्य अर्थ में आया है क्योंकि ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है कि उनका निर्माण विशेष अंगों के उपांग रूप में किया गया हो। प्रज्ञापना की हरिभद्रीय प्रदेश वृत्ति में भी प्रज्ञापना के समवायांग सूत्र के उपांग होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किंतु नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि के समय तक सूर्यप्रज्ञप्ति को पांचवें अंग भगवती के व जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति को छठे अंग ज्ञाताधर्म कथा के उपांग की संज्ञा प्राप्त हो गयी थी, परन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र प्रकीर्णक ही रहा। ऐसा उल्लेख उनकी स्थानांग की चौथे स्थान की टीका में है। इसके बाद होने वाले
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