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________________ | प्रज्ञापना सूत्र : एक परिचय अपेक्षा समस्त संसारी जीवों का विचार है । 23. तेबीसवें कर्मप्रकृति पद में २ उद्देशक हैं। प्रथम में ज्ञानावरणीय आदि ८ कर्मों में से कौन जीव कितनी प्रकृतियां बांधता है, इसका विचार है तथा दूसरे में कर्मों की उत्तरप्रकृतियों और उनके बन्ध का वर्णन है । 24. चौबीसवें कर्मबंध पद में ज्ञानावरणीय आदि में से किस कर्म को बांधते 271 हुए जीव कितनी प्रकृतियों को बांधता है ? का वर्णन है। 25. पच्चीसवें कर्मवेद पद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है?, इसका विचार किया गया है। 26. छब्बीसवें कर्मवेदबन्ध पद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी प्रकृतियों को बांधता है? यह बताया गया है। 27. सत्तावीसवें कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है? का वर्णन है। 28. अट्ठावीसवें आहारपद में दो उद्देशक हैं । प्रथम में सचित्ताहारी आहारार्थी कितने काल तक किसका आहार करता है? वह सर्वात्म प्रदेशों से आहार करता है या अमुक भाग से ? क्या सर्वपुद्गलों का आहार करता है ? किस रूप में उसका परिणमन होता है? लोमाहार आदि क्या है? इसका विचार है दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि आदि तेरह अधिकार हैं। 29. उनतीसवें उपयोग पद में दो उपयोगों के प्रकार बताकर किस जीव में कितने उपयोग पाये जाते हैं ? का वर्णन है । 30. तीसवें पश्यत्ता पद में ज्ञान और दर्शन, ये उपयोग के २ भेद बताकर इनके प्रभेदों की अपेक्षा जीवों का विचार किया गया है। 31. इकतीसवें संज्ञी पद में संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी की अपेक्षा जीवों का विचार किया है। 32. बत्तीसवें संयत पद में संयत, असंयत और संयातासंयत की दृष्टि से जीवों का विचार किया है। तीसवें अवधिपद में विषय, संस्थान, अभ्यन्तावधि, बाह्यावधि, देशावधि, सर्वावधि, वृद्धि-अवधि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती इन द्वारों से विचारणा की गई है। 33. 34. चौंतीसवें प्रविचारणा पद में अनन्तरागत आहारक, आहारविषयक आभोग– अनाभोग, आहार रूप से गृहीत पुद्गलों की अज्ञानता, अध्यवसायकथन, सम्यक्त्वप्राप्ति तथा कायस्पर्श, रूप, शब्द, मन से संबंधित प्रविचारणा (विषयभोग) एवं उनके अल्पबहुत्व का वर्णन है । 35. पैंतीसवें वेदनापद में शीत, उष्ण, शीतोष्ण, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शारीरिक, मानसिक, शारीरिक-मानसिक साता, असाता, साता-असाता, दुःख, सुख, अदुःखसुखा, आभ्युपगमिकी, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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