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________________ 1266 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका जैसे संसार-समापन्नक जीवों के विषय में नौ प्रतिपत्तियाँ कहीं गई हैं वैसे ही सर्वजीव के विषय में भी नौ प्रतिपत्तियाँ कही गई हैं। सर्वजीव में संसारी और मुक्त दोनों प्रकार के जीवों का समावेश होता है। अतएव इन नौ प्रतिपत्तियों में सब प्रकार के जीवों का समावेश हो जाता है। वे नौ प्रतिपत्तियाँ इस प्रकार हैं१. सर्वजीव दो प्रकार के कहे गये हैं- १. सिद्ध २. असिद्ध २. सब जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं- १. सम्यग्दृष्टि २. मिथ्यादृष्टि ३. सम्यग्मिथ्या दृष्टि। ३. सब जीव चार प्रकार के कहे गये हैं-१. मनोयोगी २. वचनयोगी ३. काययोगी ४. अयोगी। ४. सब जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं-१. नैरयिक २. तिर्यंच ३. मनुष्य ४. देव ५. सिद्ध ५. सब जीव छः प्रकार के कहे गये हैं- १. औदारिक शरीरी २. वैक्रिय शरीरी ३. आहारक शरीरी ४. तैजस शरीरी ५. कार्मण शरीरी ६. अशरीरी। ६. सब जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-१. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक ३. तेजस्कायिक ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक ६. त्रसकायिक ७. अकायिक। ७. सब जीव आठ प्रकार के कहे गये है- १. मतिज्ञानी २. श्रुतज्ञानी ३. अवधिज्ञानी ४. मन:पर्यवज्ञानी ५. केवलज्ञानी ६. मति-अज्ञानी ७. श्रुत अज्ञानी ८. विभंगज्ञानी। ८. सब जीव नौ प्रकार के कहे गये हैं- १. एकेन्द्रिय २. द्वीन्द्रिय ३. त्रीन्द्रिय ४. चतुरिन्द्रिय ५. नैरयिक ६. तिर्यच ७. मनुष्य ८. देव ९. सिद्ध ९. सब जीव दस प्रकार के कहे गये हैं- १. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक ३. तेजस्कायिक ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक ६. द्वीन्द्रिय ७. त्रीन्द्रिय ८. चतुरिन्द्रिय ९. पंचेन्द्रिय १०. अतीन्द्रिय। जैन तत्त्व ज्ञान प्रधानतया आत्मवादी है। जीव या आत्मा इसका केन्द्र बिन्दु है। अतएव यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्व ज्ञान का मूल आत्मद्रव्य (जीव) है। उसका आरम्भ आत्म-विचार से होता है तथा मोक्ष उसकी अन्तिम परिणति है। इस जीवाजीवाभिगम सूत्र में उसी आत्म द्रव्य की अर्थात् जीव की विस्तार के साथ चर्चा की गई है। अतएव यह जीवाभिगम कहा जाता है। अभिगम का अर्थ है ज्ञान। जिसके द्वारा जीव-अजीव का ज्ञान विज्ञान हो वह जीवाजीवाभिगम है। अजीव तत्त्व का सामान्य उल्लेख करने के बाद सम्पूर्ण परिचय जीव तत्त्व को लेकर दिया गया है। उपर्युक्त वर्णित नौ प्रतिपत्तियों के माध्यम से यह बताया गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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