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________________ राजप्रश्नीय सूत्र श्री सुन्दरलाल जैन द्वितीय उपांग राजप्रश्नीय सूत्र कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण आगम है। इसमें संगीतकला, नाट्यकला, वास्तुकला की रोचक जानकारी तो प्राप्त होती ही है, किन्तु मूलत: इसमें शरीर से भिन्न आत्मतत्त्व की संवाद-शैली में रोचक ढंग से सिद्धि की गई है। आगम के पूर्वार्द्ध में सूर्याभ देव द्वारा भगवान महावीर के दर्शन करने के साथ देव ऋद्धि, नाट्यविधि आदि का अलौकिक प्रदर्शन है, वहाँ इसके उत्तरार्द्ध में सूर्याभ देव के पूर्वभववर्ती जीव- राजा प्रदेशी की पार्वापत्य केशीकुमार श्रमण से आध्यात्मिक/ दार्शनिक चर्चा है, जो राजा प्रदेशी के जीवन को परिवर्तित करने में निमित्त बनी। प्रस्तुत आलेख में संस्कृत व्याख्याता श्री सुन्दरलाल जी जैन ने इस चर्चा को संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है, जो आत्म-तत्त्व के अस्तित्व की सिद्धि में युक्तियों से युक्त है। -सम्पादक __आप्त वचन को आगम कहते हैं। स्थानकवासी जैन परम्परा में ३२ आगम मान्य हैं। इनमें आचारांग आदि ग्यारह अंग सूत्र, औपपातिक आदि बारह उपांग सूत्र, दशाश्रुत आदि चार छेद सूत्र, उत्तराध्ययन आदि चार मूल सूत्र एवं आवश्यक सूत्र की परिगणना की जाती है। जिस प्रकार वैदिक साहित्य में प्रत्येक वेद से संबद्ध ब्राह्मण आदि ग्रंथ होते हैं, उसी प्रकार आचारांग आदि ग्यारह अंगों से संबद्ध उपांग होते हैं। राजप्रश्नीय सूत्र दूसरे अंगसूत्र सुत्रकृतांग से संबद्ध उपांग सूत्र है। राजप्रश्नीय सूत्र कथा प्रधान आगम है। इस आगम में प्रश्नोत्तर के माध्यम से 'तत् जीव तत् शरीर वाद' का खण्डन कर “जीव भिन्न है, शरीर भिन्न है" इस भेद ज्ञान का मण्डन उपलब्ध होने से यह एक दार्शनिक आगम है। इस आगम में राजा प्रदेशी द्वारा केशी कुमार श्रमण से पूछे गये रोचक प्रश्नों एवं उनके समाधान का समावेश होने से इस सूत्र का नामकरण राजप्रश्नीय सूत्र किया गया है। विषय वस्तु के आधार पर प्रस्तुत आगम को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इसके पूर्वार्द्ध में प्रथम देवलोक के सूर्याभ नामक देव की देवऋद्धि, उसका भगवान महावीर के दर्शनार्थ अमलकप्पा नगरी में पदार्पण, भगवान की पर्युपासना कर देव माया से विभिन्न नाट्य विधियों एवं भगवान महावीर की जीवन झांकी का प्रदर्शन सम्मिलित है, तो इसके उत्तरार्द्ध में केशीकुमार श्रमण द्वारा चित्त सारथि को उपदेश देकर श्रमणोपासक बनाना तथा उसकी विनति पर श्वेताम्बिका नगरी पधारकर अधर्मी राजा प्रदेशी के साथ जीव के अस्तित्व, नास्तित्व पर चर्चा कर उसे श्रमणोपासक बनाने की घटना वर्णित है। राजा प्रदेशी का जीव ही मरकर प्रथम सौधर्म कल्प में सूर्याभ नामक देव रूप में उत्पन्न हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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