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________________ 224 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक अभ्युदय हेतु अपवाद रूप से ही इनका उपयोग किया जाता होगा । किन्तु काल के प्रभाव से परिवर्तित परिस्थितियों में पूर्वाचार्यों को उन विद्याओं के दुरुपयोग की आशंका होने से उन विद्याओं को इस अंग से निकाल दिया गया हो।" वस्तु स्थिति की वास्तविकता क्या रही होगी, यह केवलीगम्य है। किन्तु इतना अवश्य है कि वर्तमान उपलब्ध सूत्र में ऐसी कोई विषय सामग्री उपलब्ध नहीं होने से प्रश्नव्याकरण का सामान्य अर्थ जिज्ञासा और समाधान ही ग्रहण किया गया प्रतीत होता है। उपलब्ध वर्ण्य विषय के आधार पर धर्म और अधर्म रूप विषयों की चर्चा से युक्त सूत्र ही प्रश्न व्याकरण सूत्र है, ऐसी मूर्धन्य विद्वद्वर्ग की मान्यता है । सूत्र रचनाकार, भाषा और शैली - "जंबू ! इणमो अण्हय- संवर विणिच्छयं पवयणस्स णीसंदं। वोच्छामि णिच्छयत्थं सुहासियत्थं महेसीहिं ।” उक्त गाथा में आर्य जम्बू को संबोधित किया गया है। अतः टीकाकारों ने इस सूत्र को उनके गुरु सुधर्मा स्वामी द्वारा निरूपित अंग सूत्र के रूप में स्वीकार किया है। प्रस्तुत आगम के अंतर्गत सम्पूर्ण विषय वस्तु का कथन आर्य सुधर्मा द्वारा जम्बूस्वामी को संबोधित करते हुए उपलब्ध होता है, अतः रचनाकार के संबंध में शंका निर्मूल है। प्रश्नव्याकरण सूत्र की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग में ली गई भाषा एवं शब्दों की योजना प्रभावपूर्ण है। जैसे हिंसा आस्रव का एक रूप है, जिसमें क्रूरता एवं भयानकता के भाव रहे हुए हैं जिसका बोध कराने के लिए कर्कश एवं रौद्र शब्दों का प्रयोग होना चाहिए, इसमें उस रूप की विद्यमानता परिलक्षित होती है। दूसरी ओर अहिंसा, सत्य आदि संवर के स्वरूप वर्णन हेतु कोमल पदों का उपयोग अपेक्षित है, प्रश्नव्याकरण में इस वैशिष्ट्य की भी प्रचुरता है । इसका प्रत्यक्ष एवं मूर्त रूप इसके अध्ययन से भलीभाँति प्रकट होता है। सूत्र का वर्ण्य विषय - इस सूत्र में आस्रव एवं संवर का मौलिक रूप में विशद चिन्तन एवं वर्णन किया गया है। वैसे तो आस्रव-संवर की चर्चा अन्य आगमों में भी हुई है, किन्तु 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' तो इन्हीं के वर्णन का शास्त्र है । इनका जितना क्रमबद्ध और व्यवस्थित विशद वर्णन इसमें किया गया है उतना अन्यत्र कहीं नहीं हुआ है। पूज्य श्री अमोलकऋषि जी म.सा., पूज्य श्री घासीलाल जी म.सा., पूज्य श्री मधुकरमुनि जी म. सा. प्रभृति सन्तों ने इसका विवेचन कर वर्ण्य विषय को सुबोधता प्रदान की है। साहित्य मनीषी आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. ने इस पर टीका ग्रंथ की रचना की है, जिसके द्वारा प्रतिपाद्य विषय के आशय को सरल सुबोध भाषा में स्पष्ट कर उसकी दुरूहता दूर करते हुए जन-सामान्य के लिए बोधगम्य एवं उपयोगी बनाया है। उक्त सूत्र को चरम तीर्थंकर भ. महावीर द्वारा प्रतिपादित द्वादशांगी के दसवें अंग के रूप में स्थान प्राप्त है। सूत्र के उपसंहार में सूत्रकार ने इस "" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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