________________
प्रश्नव्याकरण सूत्रामा
223 सूत्र के उपसंहार में 'पण्हापागरण' का प्रयोग भी उपलब्ध है। ठाणांग सूत्र के दसवें ठाणे में ‘पण्हावागरणदसा' का उल्लेख है। दिगंबर साहित्य में भी 'पण्हवायरण' शब्द की जानकारी मिलती है। अत: समग्र दृष्टि से संस्कृत में 'प्रश्नव्याकरण' नाम ही अधिक प्रचलित है। यह समासयुक्त पद है, जिसका अर्थ होता है 'प्रश्नों का व्याकरण'। किन्तु इसमें किन प्रश्नों का व्याकरण या व्याख्यान किया गया था एतद् विषयक श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के मान्य ग्रन्थों जैसे—अंगपण्णत्ति, धवलाग्रन्थों एवं ठाणांग, समवायांग, नंदीसूत्र आदि ग्रन्थों में जिस विषयसामग्री का उल्लेख मिलता है उससे वर्तमान में उपलब्ध ‘प्रश्नव्याकरण सूत्र' का मेल नहीं बैठता है।
समवायांग सूत्र में इस सूत्र का परिचय देते हुए सूत्रकार ने लिखा है कि “इस सूत्र में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न और १०८ प्रश्नाप्रश्न हैं। विद्या में अतिशय प्राप्त किए हुए नागकुमार, सुवर्ण कुमार अथवा यक्षादि के साथ साधकों के जो दिव्य संवाद हुआ करते थे, उन सब लब्धियों, दिव्य विद्याओं, अतिशय युक्त प्रश्नों आदि विषयों का निरूपण किया गया है। इस सूत्र में १ श्रुतस्कंध, ४५ उद्देशन काल, ४५ समद्देशन काल, संख्यात सहस्र पद, संख्यात अक्षर, परिमित वाचनाएँ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात ही प्रतिपत्तियाँ हैं। नंदी सूत्र में भी इसी से मिलता-जुलता उल्लेख प्राप्त होता है। ठाणांग सूत्र में इसके १० अध्ययनों की संख्या एवं उन अध्ययनों के नाम उल्लिखित हैं। दिगंबर परंपरा के ग्रंथ अंगपण्णत्ति, धवला और राजवार्तिक आदि में भी ठाणांग सूत्र से मिलताजुलता वर्णन प्राप्त होने का उल्लेख विवेचक आचार्यों द्वारा अपने ग्रंथों में किया गया है।
दोनों परम्पराओं के उपर्युक्त मान्य ग्रंथों में प्रश्नव्याकरण सूत्र की जिस विषय सामग्री का उल्लेख किया गया है उस सामग्री का वर्तमान में उपलब्ध सूत्र में श्रुत स्कंध के उल्लेख के अतिरिक्त तनिक भी समानता नहीं है। इस संबंध में वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने स्पष्टीकरण देते हुए बताया है कि "इस समय का कोई अनधिकारी व्यक्ति सूत्र में वर्णित विद्याओं का दुरुपयोग न कर बैठे, इस आशंका से वे सब विद्याएँ इस सूत्र में से निकाल दी गई और उनके स्थान पर आनव और संवर के वर्णन का समावेश कर दिया गया।'
___ एक विवेचनकार के विचारानुसार “आगम के मूल पाठ से ऐसा प्रकट होता है कि वर्णित चमत्कार पूर्ण अत्यंत निगूढ एवं मनोगत प्रश्नों के प्रतीतिकारक वास्तविक उत्तर देने के लिए अनेक विद्याएँ इस अंग में विद्यमान थीं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल में जैन सिद्धान्त के अनुरूप इन आरंभ-समारंभ पूर्ण विद्याओं से सर्वथा बचते हुए धर्म के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org