________________
180
जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक
प्रयोग इस ग्रन्थ की भाषा को समृद्ध बनाता है। इस ग्रन्थ प्रस्तुत कथाओं के माध्यम से यह तथ्य भी सामने आता है कि प्राचीन समय में सम्पन्न और संस्कारित व्यक्ति के लिए बहुभाषाविद् होना गौरव की बात होती थी । मेघकुमार को विविध प्रकार की अठारह देशी भाषाओं का विशारद कहा गया है। ये अठारह देशी भाषाएं कौनसी थीं, इस बात का ज्ञान आठवीं शताब्दी के प्राकृत ग्रन्थ कुवलयमाला के विवरण से पता चलता है । यद्यपि अठारह लिपियों के नाम विभिन्न प्राकृत ग्रन्थों में प्राप्त हो जाते हैं। इन लिपियों के संबंध में आगमप्रभाकर पुण्यविजयजी म.सा. का यह अभिमत था कि इनमें अनेकों नाम कल्पित हैं। इन लिपियों के संबंध में अभी तक कोई प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध नहीं हुआ है, इससे भी यह प्रतीत होता है कि ये सभी लिपियां प्राचीन समय में ही लुप्त हो गई, या इन लिपियों का स्थान ब्राह्मीलिपि ने ले लिया होगा। कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरू, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। डॉ. ए. मास्टर का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में औड़ और द्राविडी भाषाएँ मिला देने से अठारह भाषाएँ हो जाती हैं, जो देशी हैं।
कला और धर्म
ज्ञाताधर्मकथा में विभिन्न कलाओं के नामों का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है । ७२ कलाओं का यहाँ उल्लेख है, जिसकी परम्परा परवर्ती प्राकृत ग्रन्थों में भी प्राप्त है। इन कलाओं में से अनेक कलाओं का व्यावहारिक प्रयोग भी इस ग्रन्थ के विभिन्न वर्णनों में प्राप्त होता है। मल्लि की कथा में उत्कृष्ट चित्रकला का विवरण प्राप्त है। चित्रशालाओं के उपयोग भी समाज में प्रचलित थे। ज्ञाताधर्मकथा धर्म और दर्शन प्रधान ग्रन्थ है । इसमें विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तों और दार्शनिक मतों का विवेचन भी है। समाज में अनेक मतों को मानने वाले धार्मिक प्रचारक होते थे, जो व्यापारियों के साथ विभिन्न स्थानों की यात्रा कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। धन्य सार्थवाह की समुद्रयात्रा के समय अनेक परिव्राजक उनके साथ गए थे। यद्यपि इन परिव्राजिकों के नाम एवं पहचान आदि अन्य ग्रन्थों से प्राप्त होती है । ब्राह्मण और श्रमण जैसे धार्मिक सन्त उनमें प्रमुख थे। आगे चलकर ऐसे धार्मिक प्रचारकों की एक स्थान पर राजा के समक्ष अपने-अपने मतों की परीक्षा भी प्रचलित हो गई थी। धार्मिक दृष्टि से ज्ञाताधर्मकथा में वैदिक परम्परा में प्रचलित श्रीकृष्ण कथा का भी विस्तार से वर्णन हुआ है। श्रीकृष्ण, पांडव, द्रौपदी आदि पात्रों के संस्कारित जीवन के अनेक प्रसंग वर्णित हैं। इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org