SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत प्रोफेसर प्रेमसुमन जैन ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में ऐतिहासिक कथानकों एवं काल्पनिक दृष्टान्तों के माध्यम से साधना दृढ़ता की प्रभावी प्रेरणा मिलती है। इसमें सांस्कृतिक दृष्टि से भाषा, लिपि, कला, व्यापार, रीति-रिवाज आदि के संबंध में भी प्रभूत सामग्री प्राप्त होती है। प्राकृत एवं जैन धर्म-दर्शन के प्रतिष्ठित विद्वान् डॉ. प्रेमसुमन जी, उदयपुर ने अपने आलेख में जाताधर्मकथा के सांस्कृतिक महत्त्व को उजागर किया है। सूत्र -सम्पादक प्राकृत भाषा के प्राचीन ग्रन्थों में अर्धमागधी में लिखित अंगग्रन्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति और चिंतन के क्रमिक विकास को जानने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन हैं। अंग ग्रन्थों में ज्ञाताधर्मकथा का विशिष्ट महत्त्व है। कथा और दर्शन का यह संगम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के नाम में भी इसका विषय और महत्त्व छिपा हुआ है। उदाहरण प्रधान धर्मकथाओं का यह प्रतिनिधि ग्रन्थ है । ज्ञातपुत्र भगवान महावीर की धर्म कथाओं को प्रस्तुत करने वाला इस ग्रन्थ का नाम ज्ञाताधर्मकथा सार्थक है। विद्वानों ने अन्य दृष्टियों से भी इस ग्रन्थ के नामकरण की समीक्षा की है। दृष्टान्त एवं धर्म कथाएँ आगम ग्रन्थों में कथा-तत्त्व के अध्ययन की दृष्टि से ज्ञाताधर्मकथा में पर्याप्त सामग्री है। इसमें विभिन्न दृष्टान्त एवं धर्म कथाएं हैं, जिनके माध्यम से जैन तत्त्व-दर्शन को सहज रूप में जनमानस तक पहुँचाया गया है। ज्ञाताधर्मकथा आगमिक कथाओं का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें कथाओं की विविधता है और प्रौढ़ता भी । मेघकुमार, थावच्चापुत्र, मल्ली तथा द्रौपदी की कथाएँ ऐतिहासिक वातावरण प्रस्तुत करती हैं। प्रतिबुद्धराजा, अर्हन्नक व्यापारी, राजा रूक्मी, स्वर्णकार की कथा, चित्रकार कथा, चोखा परिव्राजिका आदि कथाएँ मल्ली की कथा की अवान्तर कथाएँ हैं । मूलथा के साथ अवान्तर कथा की परम्परा की जानकारी के लिए ज्ञाताधर्मकथा आधारभूत स्रोत है। ये कथाएँ कल्पना - प्रधान एवं सोद्देश्य हैं। इसी तरह जिनपाल एवं जिनरक्षित की कथा, तेतलीपुत्र कथा, सुषमा की कथा एवं पुण्डरीक कथा कल्पना प्रधान कथाएँ हैं । ज्ञाताधर्मकथा में दृष्टान्त और रूपक कथाएं भी हैं । मयूरों के अण्डों के दृष्टान्त से श्रद्धा और धैर्य के फल को प्रकट किया गया हैं। दो कछुओं के उदाहरण से संयमी और असयंमी साधक के परिणामों को उपस्थित किया गया है । तुम्बे के दृष्टान्त से कर्मवाद को स्पष्ट किया गया है। दावद्रव नामक वृक्ष के उदाहरण द्वारा आराधक और विराधक के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । ये दृष्टान्त कथाएँ परवर्ती साहित्य के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं। इस ग्रन्थ में कुछ रूपक कथाएँ भी हैं। दूसरे अध्ययन की कथा धन्ना सार्थवाह एवं विजय चोर की कथा है। यह आत्मा और शरीर के संबंध का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy