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व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र
मात्रामा 1771 है, जिसका प्रथम खण्ड द्वितीय शतक तक प्रकाशित है। हिन्दी एवं गुजराती अनुवाद अनेक स्थानों से प्रकाशित हैं।
संदर्भ १. (अ) समवायांग सूत्र ९३, नन्दीसूत्र ८५ (ब) तत्त्वार्थराजवार्तिक १.२०, षट्खण्डागम, भाग १, पृष्ठ १०१ एवं कसायपाहुड,
प्रथम अधिकारपृष्ठ १२५ के अनुसार इसमें ६० हजार प्रश्नों का व्याकरण है। २. इह सतं चेव अज्झयणसण्णं-नन्दीचूर्णि सूत्र ८९ पृ. ६५ ३. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग-२ के अनुसार इसमें १८८३ शतक हैं, जबकि
आगम प्रकाश समिति, ब्यावर एवं भगवई (लाडनूं) के अनुसार १९२३ शतक हैं। १९२५ शतकों का उल्लेख भगवतीसूत्र के उपसंहार में पाया जाता है। बीसवें शतक के छठे उद्देशक में पृथ्वी, अप् और वायु इन तीनों की उत्पत्ति का निरूपण है। एक परम्परा के अनुसार यह एक उद्देशक है, दूसरी परम्परा के अनुसार ये तीन उद्देशक
हैं। तीन उद्देशक मानने पर उद्देशकों की संख्या १९२५ हो जाती है। ४. अन्य तीन प्रकार है(अ) अथवा विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्त इति व्याख्या--
अभिलाप्यपदार्थवृत्तयः, ता: प्रज्ञाप्यन्ते यस्याम्। (ब) अथवा व्याख्यानाम्- अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टा: ज्ञप्तयो- ज्ञानानि यस्यां सा
व्याख्याप्रज्ञप्तिः। (स) अथवा व्याख्याया: अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्च-तद्धेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु बा
प्रज्ञाया: आप्ति:-प्राप्तिः आत्तिर्वा-आदानं यस्याः सकाशादसौ व्याख्याप्रज्ञप्तिाख्याप्रज्ञात्तिर्वा व्याख्याप्रज्ञाद्वा भगवतः सकाशादाप्तिरात्तिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा।
____ अभयदेवसूरि ने 'विवाहपण्णत्ति एवं 'विबाहपण्णत्ति' नामों की भी संगति बतायी है। ५. समवायागसूत्र , सूत्र १४० ६. सम्पादकीय, पृ. १६-१७, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ग्रंथाक १४, आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर ७. उनकी यह प्रस्तावना 'भगवती सूत्र : एक परिशीलन' नाम से तारक गुरु ग्रन्थालय,
उदयपुर से विक्रम संवत् २०४९ में प्रकाशित हो गई है। ८. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग--२, पृ. १४०, जैन इतिहास समिति, जयपुर, सन्
१९९५ ९. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. १३ १०.भगवई, खण्ड–१, भूमिका पृ. ३३, लाडनूं
- 3 K 24-25, कुड़ी भगतासनी हाउसिंग बोर्ड, जोधपुर (राज.)342005
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