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________________ | 164 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क है। छियतरवें में विद्युत कुमार आदि भवनपति देवों के ७६-७६ लाख भवनों , सत्तहत्तरवें में सम्राट भरत द्वारा ७७ लाख पर्व तक कमारावस्था में रहने और ७७ राजाओं के साथ दीक्षित होने, अठहत्तरवें में गणधर अकम्पित जी का ७८ वर्ष की आयु में सिद्ध होने का कथन है। उन्नासीवें समवाय ये छठे नरक के मध्यभाग से घनोदधि के नीचे चरमान्त तक ७९ हजार योजन का अन्तर तथा अस्सीवें समवाय में त्रिपृष्ट वासुदेव के ८० लाख वर्ष तक सम्राट् पद पर रहने का उल्लेख किया गया है। इक्यासीवें समवाय में ८१०० मन:पर्यवज्ञानी होने, बयासीवें में ८२ रात्रियाँ बीतने पर भगवान महावीर का जीव गर्भ में सहरण किये जाने, तियासीवे में भ. शीतलनाथ के ८३ गण और ८३ गणधर होने, चौरासीवें में भ. ऋषभदेव की ८४ लाख पूर्व की और, भ. श्रेयांस की ८४ लाख वर्ष की आयु होने. पिन्यासीवें में आचारांग के ८५ उद्देशन काल, छियासीवे में भगवान सुविधिनाथ के ८६ गण व ८६ गणधर होने का कथन है। सत्यासीवें में ज्ञानावरणीय और अन्तराय को छोड़कर शेष ६ कर्मों की ८७ उत्तर प्रकृतियाँ बतायी गई हैं। अट्ठयासीवें में प्रत्येक सूर्य और चन्द्र के ८८-८८ महाग्रह, नवासीवें में तीसरे आरे के ८९ हजार श्रमणियों तथा नब्बवें समवाय में भ. अजितनाथ व शान्तिनाथ के ९० गण व ९० गणधर होने का उल्लेख किया गया है। इकरानवें समवाय में भगवान कुन्थुनाथ के ९१००० अवधिज्ञानी श्रमण, बरानवें में गणधर इन्द्रभूति का ९२ वर्ष की आयु पूर्ण कर मुक्त होना, तिरानवें में भ. चन्द्रप्रभ के ९३ गण और ९३ गणधर, भ. शान्तिनाथ के ९३०० चौदह पूर्वधारी श्रमण, चौरानवे में भ. अजितनाथ के ९४०० अवधिज्ञानी, पिच्यानवें में भ. पार्श्वनाथ के ९५ गण और ९५ गणधर, छियानवें में प्रत्येक चक्रवर्ती के ९६ करोड़ गांव, सत्तानवें में आठ कर्मों की ९७ उत्तर प्रकृतियाँ, अट्ठानवें मे रेवती व ज्येष्ठा पर्यन्त उन्नीस नक्षत्रों के ९८ तारे, निन्नाणवें में मेरु पर्वत भूमि से ९९००० योजग ऊँचा तथा सौवें समवाय में भ. पार्श्वनाथ की और सुधर्मा स्वामी की आयु एक सौ वर्ष की बतलायी गयी है। अन्य समवाय सौवें समवाय के बाद क्रमश: १५०-२००-२५०-३००-३५०४००-४५०-५०० यावत् १००० से २०००, दो हजार से दस हजार, दस हजार से एक लाख, उससे ८ लाख और करोड़ की संख्या वाले विभिन्न विषयों का इन समवायों में संकलन किया गया है। कोटि समवाय के पश्चात् १२ सूत्रों में द्वादशांगी का गणिपिटक के नाम से सारभूत परिचय भी दिया गया है। उपसंहार समवायांग सूत्र में विभिन्न विषयों का जितना संकलन हुआ है, उतना विषयों की दृष्टि से संकलन अन्य आगमों में कम हुआ है। जैसे विष्णु मुनि ने तीन पैर से विराट् विश्व को नाप लिया था, वैसी ही स्थिति समवायांग सूत्र की है। व्यवहार सूत्र में सही ही कहा गया है कि स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता ही आचार्य उपाध्याय जैसे गौरवपूर्ण पद को धारण कर सकता है, क्योंकि इन सूत्रों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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