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________________ समवायाम संबंधित वर्णन के साथ भूगोल, खगोल आदि की सामग्री का संकलन भी किया गया है। आचार्य देववाचक जी ने कहा कि समवायांग में कोष शैली अत्यन्त प्राचीन है । स्मरण करने की दृष्टि से यह शैली अत्यधिक उपयोगी रही है। समवायांग सूत्र में द्रव्य की दृष्टिसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि का निरूपण किया गया है। क्षेत्र की दृष्टि से लोक, अलोक, सिद्धशिला आदि का वर्णन किया गया है। काल की दृष्टि से समय, आवलिका, मुहूर्त आदि से लेकर पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और पुद्गल परावर्तन एवं चार गति के जीवों की स्थिति आदि पर विचार किया गया है। भाव की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि जीव के भावों तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि अजीव के भावों का भी वर्णन किया गया है। प्रथम समवाय ● समवायांग सूत्र के प्रथम समवाय में जीव, अजीव आदि तत्त्वों का विवेचन करते हुए आत्मा, अनात्मा, दण्ड, अदण्ड, क्रिया, अक्रिया, लोक- अलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुण्य, पाप बन्ध, मोक्ष, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा आदि को संग्रह नय की अपेक्षा से एक-एक बतलाया गया है। । तत्पश्चात् एक लाख योजन की लम्बाई, चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप, सर्वार्थ सिद्ध विमान आदि का उल्लेख है। एक सागर की स्थिति वाले नारक, देव आदि का वर्णन भी इसमें उपलब्ध है। द्वितीय समवाय दूसरे समवाय में दो प्रकार के दण्ड, दो प्रकार के बंध, दो राशि, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे, नारकीय और देवों की दो पल्योपम और दो सागरोपम की स्थिति, दो भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का वर्णन किया गया है। अर्थ दण्ड, अनर्थ दण्ड का विवेचन करने के पश्चात् जीव राशि अजीव राशि का विवेचन किया गया है तथा बन्ध के दो प्रकारों में रागबन्ध और द्वेष बन्ध ये दो भेद बतलाये हैं। राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। दूसरे समवाय के अनेक सूत्र स्थानांग सूत्र में भी देखे जा सकते हैं। तृतीय समवाय • तीसरे समवाय में तीन दण्ड, तीन गुप्ति, तीन शल्य, तीन गौरव, तीन विराधना, तीन तारे, नरक और देवों की तीन पल्योपम व तीन सागरोपम की स्थिति वालों का विवेचन करने के साथ ही तीन भव करके मुक्त होने वाले भवसिद्धिक जीवों का भी वर्णन किया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय का उल्लेख भी इस समवाय में उपलब्ध है। चतुर्थ समवाय चतुर्थ समवाय में चार कषाय, चार ध्यान, चार विकथाएँ, चार संज्ञाएँ, चार प्रकार के बंध, अनुराधा पूर्वाषाढा के तारों, नारकी व देवों की चार पल्योपम व चार सागरोपम की स्थिति का उल्लेख करने के साथ ही चार भव करके मोक्ष में जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का भी कथन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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