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________________ जिनवाणी- जैनागम- साहित्य विशेषाङक बादल, कुम्भ आदि से समता करते हुए सैकड़ों रूपों में मानवीय वृत्तियों का इस सूत्र में वर्णन किया गया है। उदाहरण के रूप में वृक्ष चार प्रकार के होते हैं- पत्रयुक्त, पुष्पयुक्त, फलयुक्त, छायायुक्त। इसी प्रकार मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं- पत्रयुक्त वृक्ष के समान केवल छाया में आश्रय देने वाले । पुष्पवाले वृक्ष के समान (केवल सद्विचार देने वाले) । फलयुक्त वृक्ष के समान (अन्न-वस्त्रादि देने वाले) और छाया युक्त वृक्ष के समान (शान्ति सुरक्षा और सुख देने वाले)। एक अन्य उदाहरण में कहागया है- मेघ चार प्रकार के होते हैं१. एक मेघ गर्जता है, बरसता नहीं । २. एक मेघ बरसता है, गर्जता नहीं । ३. एक मेघ गर्जता भी है और बरसता भी है। ४. एक मेघ न गर्जता है, न बरसता है । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के हाते हैं१. कुछ व्यक्ति बोलते हैं, पर देते कुछ नहीं । २. कुछ व्यक्ति बोलते हैं और देते भी हैं। ३. कुछ व्यक्ति देते हैं, पर बोलते नहीं । ४. कुछ व्यक्ति न बोलते हैं और न देते हैं। इस सूत्र में केवल मेघ, बिजली, गर्जन, वर्षण आदि से संबंध जोड़ते हुए सात रूपों में मेघ के अध्ययन के माध्यम से मनुष्य स्वभाव का विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार लगभग १०० उपमेय - उपमानों के रूप में उपमेयों के विश्लेषण के साथ-साथ उपमानों के रूप में मनुष्य-स्वभाव का विश्लेषण करते हुए सूत्रकार ने मानवता को हर पहलू से पहचानने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार स्थानांग सूत्र के माध्यम से शास्त्रकार ने जीवन का सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत किया है। संदर्भ १. स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या-गीता २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पृ. १७२ परियायथेरे । सट्ठिवासज ए समणे णिग्गंथे सुयधेरे, - स्थानांग ३ / ३ / १६५ ३. तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- जाइथेरे, सुत्तथेरे, समणे णिग्गंथे जातिथेरे, ठाणांग- समवाय-धरेण वीसवास - परियाए णं समणे णिग्गंथे परियायथेरे । ४. सूत्रकृतांगे त्रयाणां त्रिषष्ट्याधिकानां पाषण्डिकशतानां दृष्टयः प्ररूप्यन्ते ततो हीनपर्यायो मतिभेदेन मिथ्यात्वं यायात् । चतुर्वर्ष - पर्यायस्य धर्मेऽवगाढमतिर्भवति, ततः कुसमयैर्नापह्रियते, तेन चतुर्वर्ष-पर्यायस्य तदुद्देष्टुमनुज्ञातम् - तथा पंचवर्षोऽपवादस्य योग्य इति कृत्वा पंचवर्षस्य दशकल्पव्यवहारान् ददाति । तथा पंचानां वर्षाणामुपरिपर्यायो निकृष्ट उच्यते, तेन कारणेन स्थाने समवाये नवाधीतेन श्रुतस्थविरा भवन्ति तेन कारणेन तदुद्देशनं प्रतिविकृष्टपर्यायो गृहीतस्तथा स्थानं समवायश्च 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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