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- जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक| प्रपंच से वे मन में राग-द्वेषादि उत्पन्न न होने देने का सबसे सरल उपाय ज्ञान-प्रवृत्ति को छोड़कर अज्ञान में ही लीन रहना मानते हैं। अज्ञान को श्रेयस्कर मानने वाले अज्ञानवादी सभी यथार्थ ज्ञानों से दूर रहना चाहते हैंसबसे भले मूढ, जिन्हें न व्यापै जगत गति। क्रियावाद या कर्मोपचय निषेधवाद- बौद्ध दर्शन को सामान्यतया अक्रियावादी दर्शन कहा गया है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय के तृतीय भाग अट्ठक निपात के सिंहसुत्त में तथा विनयपिटक के महावग्ग की सिंहसेनापतिवत्थु में बुद्ध के अक्रियावादी होने के उल्लेख है। सूत्रकृतांग के बारहवें समवसरण अध्ययन में सूत्र ५३५ की चूर्णि एवं वृत्ति में बौद्धों को कहीं अक्रियावादी एवं कहीं क्रियावादी- दोनों कहा गया है, किन्तु इस विरोध का परिहार करते हुये कहा गया है कि यह अपेक्षाभेद से है। क्रियावादी केवल चैत्यकर्म किये जाने वाले (चित्तविशुद्धिपूर्वक) किसी भी कर्म आदि क्रिया को प्रधान रूप से मोक्ष का अंग मानते हैं। बौद्ध चित्तशुद्धिपूर्वक सम्पन्न प्रभूत हिंसायुक्त क्रिया को एवं अज्ञानादि से किये गये निम्न चार प्रकार के कर्मोपचय को बन्ध का कारण नहीं मानते और कर्मचिन्ता से परे रहते हैं।। 1. परिज्ञोपचित कर्म- जानते हुए भी कोपादि या क्रोधवश शरीर से अकृत,
केवल मन से चिंतित हिंसादि कर्म । 2. अविज्ञोपचित कर्म-अज्ञानवश शरीर से सम्पन्न हिंसादि कर्म। 3. ईर्यापथ कर्म- मार्ग में जाते समय अनभिसंधि से होने वाला हिंसादि कर्म। 4. स्वप्नान्तिक कर्म- स्वप्न में होने वाले हिंसादि कर्म।
बौद्धों के अनुसार ऐसे कर्मों से पुरुष स्पृष्ट होता है, बद्ध नहीं, क्योंकि ये चारों कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये बौद्ध इन कर्मग्रन्थियों से निश्चिन्त होकर क्रियाएँ करते है। बौद्ध राग-द्वेष रहित बुद्धिपूर्वक या विशुद्ध मन से हुये शारीरिक प्राणातिपात को भावविशुद्धि होने के कारण कर्मोपचय नहीं मानते। बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय बालोवाद जातक में बुद्ध कहते भी हैं कि- विपत्ति के समय पिता द्वारा पुत्र का वध कर स्वयं उसका भक्षण तथा मेधावी भिक्षु द्वारा उक्त मांशासन पापकर्म का कारण नहीं है।
सूत्रकार बौद्धों के तर्क को असंगत मानते हैं क्योंकि राग-द्वेषादि ये युक्त चित्त के बिना मारने की क्रिया हो ही नहीं सकती। मैं पुत्र को मारता हूँ ऐसे चित्तपरिणाम को कथमपि असंक्लिष्ट नहीं माना जा सकता।
अत: कर्मोपचय निषेधवादी बौद्ध कर्मचिन्ता से रहित हैं तथा संयम एवं संवर के विचार से किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते, ऐसा शास्त्रकार का बौद्धों पर आक्षेप है।
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