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सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार
121 सूत्रकृतांगकार उक्त मत का खण्डन करते हुये कहते हैं कि नियतिवादी यह नहीं जानते हैं कि सुख-दुःखादि सभी नियतिकृत नहीं होते। कुछ सुख-दुःख नियतिकृत होते हैं, क्योंकि उन-उन सुख-दु:खों के कारणरूप कर्म का अबाधा काल समाप्त होने पर अवश्य उदय होता ही है, जैसे- निकाचित कर्म का, परन्तु अनेक सुख-दुःख पुरुष के उद्योग, काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये हुये होते हैं और नियत नहीं होते। अत: केवल नियति ही समस्त वस्तुओं का कारण है, ऐसा मानना कथमपि युक्तिसंगत नहीं है। काल, स्वभाव, अदृष्ट, नियति और पुरुषार्थ ये पाँचों कारण प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर सापेक्ष सिद्ध होते हैं, अत: एकान्त रूप में केवल नियति को मानना सर्वथा दोषयुक्त है। अज्ञानवाद स्वरूप"- शास्त्रकार एकान्तवादी, संशयवादी तथा अज्ञानमिथ्यात्वग्रस्त अन्य दार्शनिकों को वन्यमृग की संज्ञा देते हुये एवं अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में उनके सिद्धान्तों की समीक्षा करते हुये कहते हैं कि एकान्तवादी, अज्ञानमिथ्यात्वयुक्त अनार्य श्रमण सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्र से पूर्णतः रहित हैं। वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अहिंसा, सत्य, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि संदों से शंकाकुल होकर उनसे दूर भागते हैं। सद्धर्मप्ररूपक वीतराग के सान्निध्य से कतराते हैं। सद्धर्मप्ररूपक शास्त्रों पर शंका करते हुये हिंसा, असत्य, मिथ्यात्व, एकान्तवाद या विषय कषायादि से युक्त अधर्म प्ररूपणा को नि:शंक होकर ग्रहण करते हैं तथा अधर्म प्ररूपकों की स्थापना करते हैं। यज्ञ और पशुबलिजनित घोर हिंसा की देशना वाले शास्त्रों को जिनमें कामनायुक्त कर्मकाण्डों का विधान और हिंसा जनक कार्यों की प्रेरणा है, नि:शंक भाव से स्वीकार करते है। घोर पापकर्म में आबद्ध ऐसे लोग इस जन्म-मरण रूप संसार में बार-बार आवागमन करते रहते हैं। अज्ञानग्रस्त एवं सन्मार्ग-अभिज्ञ ऐसे अज्ञानवादियों के संसर्ग में आने वाले दिशामूढ़ हैं एवं दु:ख को प्राप्त होंगे। संजय वेलट्ठिपुत्त के अनुसार तत्त्व विषयक अज्ञेयता या अनिश्चितता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है।
अज्ञानवादियों के संदर्भ में दो प्रकार के मत मिलते हैं- एक तो वे अज्ञानवादी हैं जो स्वयं के अल्पमिथ्याज्ञान से गर्वोन्मत्त होकर समस्त ज्ञान को अपनी विरासत मानते हैं, जबकि यथार्थतः उनका ज्ञान केवल पल्लवग्राही होता है। ये तथाकथित शास्त्रज्ञानी वीतराग सर्वज्ञ की अनेकान्तरूप तत्त्वज्ञान से युक्त, सापेक्षवाद से ओतप्रोत वाणी को गलत समझकर एवं उसे संशयवाद की संज्ञा देकर ठुकरा देते हैं।
दूसरे अज्ञानवादी अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानते हैं। उनके मत में ज्ञानाभाव में वाद-विवाद, वितण्डा, संघर्ष, कलह ,अहंकार, कषाय आदि के
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