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________________ 102 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक साहित्य में जहां जाति को महत्त्व दिया गया है, वहां भगवान महावीर ने इस मान्यता के विरुद्ध सर्वत्र समता का सिद्धान्त निरूपित किया है- णो हीणे णो अइरित्ते- न कोई हीन है, न कोई उच्च है। आचारांग सूत्र में समसामयिक साधना और धर्मधारणा का व्यापक प्रभाव है और उन सब पर भगवान महावीर के स्वतंत्र समत्वमूलक चिन्तन को गहरी छाप है। अपरिग्रह का महान दर्शन आचारांग का अध्ययन करने वाले विद्वान इसे अहिंसा और पर्यावरण के सिद्धान्तों का प्रतिपादक आगम मान लेते हैं। पर्यावरण अहिंसा से ही संबंधित है और अहिंसा के लिए आचारांग का प्रथम अध्ययन-सत्थ परिण्णा, बहुत ही व्यापक दृष्टि देता है। __ अहिंसा की स्पष्ट दृष्टि एक ही सूत्र में व्यक्त कर दी गई हैआयतुले पयासु-एयं तुलमन्नेसिं-- तू दूसरों को अपने समान ही समझ। सबके सुख दु:ख को अपनी आत्मानुभूति की तुला पर तोलकर देख। भगवान महावीर का चिन्तन है- हिंसा तो एक क्रिया है, एक मनोवृत्ति है। इसका मूल प्रेरक तत्त्व तो आसक्ति, तृष्णा या परिग्रह है। अर्थशास्त्र तथा समाज मनोविज्ञान की दृष्टि से मानव विकास का प्रेरक तत्त्व है- अर्थ के प्रति राग। वस्तु-प्राप्ति की इच्छा और उसके लिए प्रयत्न। किन्तु भगवान महावीर कहते हैं-वस्तु के प्रति राग और प्राप्ति के लिए प्रयत्न से जीवन में कभी भी शांति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। जीवन का लक्ष्य सुख नहीं, आनन्द है और आनन्द का मार्ग है-संतोष, आसक्ति का त्याग, परिग्रह विमुक्ति। इसलिए आचारांग में स्थान-स्थान पर आसक्ति.त्याग और कषाय मुक्ति का उपदेश दिया गया परिग्रह की वृत्ति ही हिंसा को प्रोत्साहित करती है। परिग्रह के लिए ही हिंसा का साधन रूप में प्रयोग होता है। इसलिए भगवान महावीर ने हिंसा का वर्जन करते हुए उसकी मूल जड़ परिग्रह तथा विषय-आसक्ति का त्याग करने का उपदेश दिया है। आसं च छन्दं च विगिंच धीरे- आशा, तृष्णा और विषयेच्छा को छोड़ने वाला ही धीर है। एयं पास! मणी महब्भयं हे मुनि! देख, यह तृष्णा, सुखों की अभिलाषा ही संसार में महाभय का कारण है। यही सबसे बड़ा पाप है। आचारांग सूत्र का परिशीलन करते हुए ऐसा अनुभव होता है कि इसका एक-एक सूत्र , एक-एक शब्द अपने आपमें एक शास्त्र है, एक पूरा दर्शन है। ध्यान, समाधि अनुप्रेक्षा, भावना, काम विरक्ति, अप्रमाद, कषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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