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________________ आचारांग सूत्र में मूल्यात्मक चेतना *डॉ. कमलचन्द सोगाणी आचारांगसूत्र में जीवन-विकास एवं साधना के सूत्र बिखरे पड़े हैं। इसमें पुनर्जन्म, आत्मा, अहिंसा, असंगता, अप्रमत्तता, संवेदनशीलता आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है। दार्शनिक एवं भाषाविद् प्रोफेसर कमलचन्द जी सोगाणी ने अपने आलेख में आचारांग सूत्र में प्रतिपादित इन विभिन्न तत्त्वों को मूल्यात्मक चेतना के रूप में प्रस्तुत किया है। सोगाणी जी के इस आलेख से आचारांग सूत्र के महत्त्व की प्रतीति सहज ही हो जाती है। इस आलेख में जो कोष्ठक में संख्या आई है वह उनके द्वारा सम्पादित, अनूदित आचारांग चयनिका की सूत्र संख्या को इंगित करती है।-सम्पादक आचारांग में मुख्य रूप से मूल्यात्मक चेतना की सबल अभिव्यक्ति हुई है। इसका प्रमुख उद्देश्य अहिंसात्मक समाज का निर्माण करने के लिये व्यक्ति को प्रेरित करना है, जिससे समाज में समता के आधार पर सुख, शान्ति और समृद्धि के बीज अंकुरित हो सकें। अज्ञान के कारण मनुष्य हिंसात्मक प्रवृत्तियों के द्वारा श्रेष्ठ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है वह हिंसा के दूरगामी कुप्रभावों को, जो उसके और समाज के जीवन को विकृत करते हैं, नहीं देख पाता है। किसी भी कारण से की गई हिंसा आचारांग को मान्य नहीं है। हिंसा के साथ ताल-मेल आचारांग की दृष्टि में हेय है। वह व्यावहारिक जीवन की विवशता हो सकती है, पर वह उपादेय नहीं हो सकती। हिंसा का अर्थ केवल किसी को प्राणविहीन करना ही नहीं है, किन्तु किसी भी प्राणी की स्वतन्त्रता का किसी भी रूप में हनन हिंसा के अर्थ में ही सिमट जाता है। इसीलिये आचारांग में कहा है कि किसी भी प्राणी को मत मारो, उस पर शासन मत करो, उसको गुलाम मत बनाओ, उसको मत सताओ और उसे अशान्त मत करो। धर्म तो प्राणियों के प्रति समता भाव में ही होता है। मेरा विश्वास है कि हिंसा का इतना सूक्ष्म विवेचन विश्वसाहित्य में कठिनाई से ही मिलेगा। समता की भूमिका पर हिंसा-अहिंसा के इतने विश्लेषण एवं विवेचन के कारण ही आचारांग को विश्वसाहित्य में सर्वोपरि स्थान दिया जा सकता है। आचारांग की घोषणा है कि प्राणियों के विकास में अन्तर होने के कारण किसी भी प्रकार के प्राणी के अस्तित्व को नकारना अपने ही अस्तित्व को नकारना है। प्राणी विविध प्रकार के होते हैं : एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इन सभी प्राणियों को जीवन प्रिय होता है, इन सभी के लिए दुःख अप्रिय होता है। आचारांग ने हिंसा-अहिंसा का विवेचन प्राणियों के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रस्तुत किया है, जो मेरी दृष्टि में एक विलक्षण प्रतिपादन है। ऐसा लगता है कि आचारांग मनुष्यों की संवेदनशीलता को गहरी करना चाहता है, जिससे मनुष्य एक ऐसे समाज का निर्माण कर सके जिसमें शोषण, अराजकता, नियमहीनता, अशान्ति और आपसी संबंधों में तनाव विद्यमान न रहे। मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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