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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क जैसे अनेक उदाहरण आज भी जैन आगम के पृष्ठों पर चमक रहे हैं व देखने, सुनने और पढ़ने को मिलते हैं, उन्हें उन आगमों से जानकर जीवन बनाने की कला सीखनी चाहिए। शास्त्रों में ऐसी अनेक प्रेरक गाथाएँ उपलब्ध है जिन्हें पढ़ सुनकर जीवन को महान् बनाया जा सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र का १९वां मृगापुत्र अध्ययन महान् प्रेरक अध्याय है। साधक जीवन का निर्माता है, जिसकी एक एक गाथा सुनकर अनेक व्यक्तियों ने भवसागर से किनारा करने की ठानी--
"जम्मं दुक्ख जरा दुक्ख, रोगाणि मरणाणि य।
अहो दुक्खो हु संसारो. जत्थ कीसन्ति जन्तवो।।" अर्थात् जन्म दु:ख का कारण है। माँ की पेट रूपी छोटी सी कोठरी में सवा नौ माह तक बन्द रहना बहुत कठिन व कष्टदायी है। जरा भी (बुढ़ापा भी) दुःखद है। बुढापाजन्य कष्टों का सामना करना सरल नहीं, कठिन है। रोग भी दुःखप्रद और क्लेशकारक है। आश्चर्य है यह संपूर्ण संसार दुःखमय है जहां रह कर यह जीवात्मा महान् क्लेश पाता है। इन संपूर्ण दु:खों से छुटकारा प्राप्त करने का एकमात्र साधन स्वाध्याय है, जिसके माध्यम से समस्त कष्टों से छुटकारा पाया जा सकता है और निर्वाणपद की प्राप्ति की जा सकती है।
उत्तराध्ययन की चार गाथाओं के माध्यम से यह बताया गया है कि यह जीवात्मा निश्चित परलोकगामी है और परलोकगमन करने वालों के साथ भाता अत्यावश्यक है।
"अद्धाणं जो महन्तंतु, अप्पाहेओ पवज्जइ। गच्छन्तो सो दुही होइ, छुहातण्हाहि पीडिओ।।18।। एवं धम्म अकाउणं, जो गच्छइ परभवं । गच्छन्तो सो दुही होइ, वाही रोगेहिं पीडिओ ।।19 ।। अद्धाणं जो महन्तं तु, सप्पाहेओ पवज्जइ। गच्छन्तो सो सुही होइ, छुहा तण्हा विवज्जिओ।।20।। एवं धम्म पिकाउणं जो गच्छड परभवं।
गच्छन्तो सो सुही होइ, अप्पकम्मे अवेयणे ।।21 ।। अर्थात् जो व्यक्ति भाता लिए बिना ही लम्बे मार्ग पर चल देता है। वह चलते हुए भूख प्यास से पीड़ित होकर दुःखी होता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म किए बिना परभव में जाता है। वह जाता हुआ व्याधि और रोगों से पीड़ित होकर दुःखी होता है।
जो व्यक्ति पाथेय साथ लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है वह भूख प्यास की पीड़ा से रहित होकर सुखी होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म करके परभव में जाता है, वह अल्पकर्मा व वेदना से रहित होकर जाता हुआ सुखी होता है। इन सब प्रेरक प्रसंगों को सुनकर समझकर जीवन प्रशस्त बनाया जा सकता है और कर्म समूह को जड़मूल से काटा जा सकता है।
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