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अवबोध- ३
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और काम का परिष्कार करता है धर्म । निरंकुश काम और निरंकुश अर्थ समाज-व्यवस्था को बिगाड़ने वाले हैं। उनसे न तो व्यक्ति स्वस्थ रह सकता है और न समाज । इसलिए ग्रन्थकार ने गृहस्थ के उस जीवन को उत्कर्ष और सफलता का जीवन माना है, जिसमें व्यक्ति धर्म- मर्यादित होकर अपनी गृहस्थी चलाता है।
मनुष्य का जीवन पशु के जीवन के समान निष्फल होता है, यदि उसमें धर्म का प्रकाश न हो । पशु विवेक चेतना और धर्म-चेतना - दोनों से शून्य 'होता है । विवेकशून्यता के कारण पशु अपना हिताहित नहीं साध सकता और धर्मशून्यता के कारण उसका क्रियाकलाप अमर्यादित रहता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने एक गृहस्थी के लिए पुरुषार्थत्रयी की चर्चा करके एक व्यावहारिक सत्य को प्रकट किया है, उपयोगी पक्ष को प्रस्तुत किया है। उसमें उसकी अनुमोदना का भाव नहीं झलकता ।
योगशास्त्र में मार्गानुसारी के लिए त्रिवर्ग की साधना को एक गुण के रूप में प्रतिपादित किया गया है- 'अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयेत्' - मार्गानुसारी गृहस्थ परस्पर अविरोधी भाव से त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम की साधना करे ।
कुछ लोगो का कथन है कि जैनधर्म में अर्थ और काम- दोनों पुरुषार्थों का कोई स्थान नहीं है। उनका यह दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है। जैन आगम उपासकदशांगसूत्र में आनन्द, कामदेव आदि गृहस्थ श्रमणोपासकों का उल्लेख हुआ है। उन्होंने अपने जीवन में अर्थ और काम का एक सीमा के साथ उपभोग किया था। उनका जीवन सीमित परिग्रह और मर्यादित ब्रह्मचर्य की साधना से भावित था। इससे स्पष्ट है कि उन श्रावकों ने अर्थ और काम पुरुषार्थ का स्वीकरण धर्ममर्यादित होकर किया ।
इस प्रकार भारतीय दर्शन की विशेषता है कि उसने भौतिकता को ही सब कुछ नहीं माना, सर्वोपरि तत्व आध्यात्मिकता को भी स्थान दिया । इसलिए मानव जीवन में अर्थ और काम गौण है, धर्म मुख्य है। धर्म के नेतृत्व अथवा अंकुश में ही अर्थ-काम रहे, यही भारतीय धर्मों और दर्शनों का सार है। इसलिए आचार्य सोमप्रभ ने कहा- 'तत्रापि धर्मं प्रवरं वन्दन्ति । '
जहां धर्म का अंकुश है वहां काम और अर्थ भी शुद्ध रहते हैं। धर्म अर्थार्जन में अशुद्ध साधनों का निषेध करता है और काम के क्षेत्र में स्वदार सन्तोष के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को मातृवत् मानने की
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