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सिन्दूरप्रकर वह अमुक वस्तु खाने के लिए ललचाता है। कभी वह देशाटन के लिए चिन्तन करता है तो कभी वह सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए साधन जुटाता है। वह सन्तान की प्राप्ति के लिए काम-भोग को भी नहीं छोड़ सकता। इस प्रकार सामाजिक जीवन में एक गृहस्थ के लिए काम और अर्थ दोनों अनिवार्य हो जाते हैं।
आचार्य सोमप्रभ ने एक गृहस्थ की अशक्यता को जानते हुए काम और अर्थ की अनिवार्यता को भी स्वीकार किया है, किन्तु उस अनिवार्यता को स्वीकार किया है, जिसमें अर्थ-काम दोनों धर्म से संयत रहते हैं, धर्म से विरुद्ध नहीं होते। क्योंकि धर्मपुरुषार्थ एक नियामक तत्त्व है। वह इन्द्रिय-निग्रह तथा मनोनिग्रह का एक साधन है। इसलिए वह काम और अर्थ दोनों पर अंकुश रखता है। इस प्रकार मनुष्य तीनों पुरुषार्थों का मिला-जुला आचरण करता है। मिला-जुला आचरण करने का तात्पर्य है कि मनुष्य न तो एकान्तरूप से अर्थार्थी होता है, न वह एकान्तरूप से कामार्थी होता है और न वह सर्वथा धर्मार्थी होता है। तीनों पुरुषार्थों का सांझा व्यापार उसके साथ चलता है।
ग्रन्थकार आचार्य ने पुरुषार्थत्रयी के अतिशय को प्रकट करते हुए कहा-'त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य।' पुरुषार्थत्रयी के बिना मनुष्य का जीवन पशु के जीवन की भांति निष्फल है। सहज ही मन में कुछेक जिज्ञासाएं होती हैं-क्या मनुष्य-जीवन की उत्कर्षता को पुरुषार्थत्रयी ही साध सकता है? क्या उसके बिना जीवन पशु की भांति व्यर्थ होता है? अध्यात्म में निमज्जन करने वाले सूरीश्वर पुरुषार्थत्रयी की अनुमोदना कैसे कर सकते हैं? गहराई से चिन्तन करें तो आचार्य सोमप्रभ ने सत्य का उद्घाटन किया है। मनुष्य समाज में रहता है, इन्द्रिय और मन के जगत् में जीता है। इसलिए वह अर्थ-काम के पुरुषार्थ से अछूता नहीं रह सकता। अर्थ जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करता है और काम परिवार की परम्परा को आगे बढ़ाता है। कोरा अर्थ उन्माद को पैदा करता है, उन्मुक्त लोभ को जन्म देता है और अर्थ-संचय में असीम आकांक्षाओं को पालता है। कोरा काम उन्मुक्त भोग की समस्या को पैदा करता है, बलात्कार, यौनशोषण, हिंसाजन्य अपराधों को जन्म देता है। यदि उन दोनों पर धर्म का नियन्त्रण रहता है तो व्यक्ति में सन्तुलन बना रहता है। समाज की जो नैतिक सीमाएं हैं, आचार-विचार-व्यवहार की जो परम्पराएं हैं वे धर्म के आधार पर ही सुरक्षित रह सकती हैं। अर्थ
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