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________________ अवबोध-३ 'उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।' उद्यम करने से हि कार्य सिद्ध होते हैं, मनोरथमात्र से नहीं। सोए हुए सिंह के मुख में मृग कभी प्रविष्ट नहीं करता। उसे भी अपनी भूख शान्त करने के लिए उद्यम-पुरुषार्थ करना पड़ता है। अर्थशास्त्री कौटिल्य ने लिखा था- 'कर्मानुरूपः प्रयत्नः वयोऽनरूपो वेषः।' मनुष्य को कार्य के अनुरूप प्रयत्न-उद्यम करना चाहिए और अवस्था के अनुसार वेष रखना चाहिए। ____ मनुष्य वैयक्तिक जीवन ही नहीं जीता वह सामाजिक जीवन भी जीता है। भारतीय संस्कृति में जब समाज-व्यवस्था का उदय हुआ तो भारतीय मनीषियों ने उस व्यवस्था को सुन्दर, सुव्यवस्थित, सुगठित तथा सुचारुरूप से चलाने के लिए एक नए रूप और एक नए परिवेष की कल्पना की थी। वह कल्पना समाज के सामने पुरुषार्थचतुष्टयी के रूप में साकार हुई। वे चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। काम और अर्थ भौतिक जीवन से जुड़े हुए तत्त्व हैं और धर्म एवं मोक्ष अध्यात्म जीवन से। एक सामाजिक प्राणी अपनी जीवन-यात्रा काम और अर्थ से प्रारंभ करता है। एक संयमी मुनि मोक्ष के लिए धर्म का आचरण करता है। गृहस्थ और संयमी-दोनों का परम साध्य मोक्ष पुरुषार्थ है। जिज्ञासा हो सकती है कि एक संयमी मुनि मोक्ष की दिशा में पुरुषार्थ करता है उसी प्रकार एक गृहस्थ का प्रस्थान भी मोक्ष की दिशा में होना चाहिए। शेष तीन पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ और काम से क्या प्रयोजन? यह सत्य है कि गृहस्थ और संयमी-दोनों की भूमिका में बहुत अन्तर है। एक गृहस्थ साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग को जानता हुआ भी उसमें पूर्णरूप से पुरुषार्थ नहीं कर सकता। वह काम-भोगों के कटुक परिणामों को जानता है, फिर भी वह मोहकर्म के प्राबल्य और इन्द्रियविषयों की चपलता के कारण अर्थ और काम दोनों पुरुषार्थों को छोड़ नहीं सकता। मनुष्य के लिए काम साध्य है और अर्थ उसकी पूर्ति का साधन है। काम का एक अर्थ है-कामवासना। दूसरा अर्थ हैअधिकार, संग्रह और उपभोग की इच्छा। मनुष्य कामनाओं का पुतला है। उसके मन में प्रतिक्षण कामनाओं की तरंगें उठती रहती हैं। वह येन केन प्रकारेण उनको पूरा करने का प्रयत्न करता है। कभी उसका मन अमुक वस्तु पाने के लिए आतुर होता है, कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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