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धर्म की प्रधानता
३.अवबोध
अथर्ववेद का प्रसिद्ध सूक्त है-'कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः'- मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएं हाथ में विजय निहित है। विजय अथवा सफलता का एकमात्र सूत्र है-पुरुषार्थ। रूपक की भाषा में पुरुषार्थ व्यक्ति से कहता है-तुम मुझे अपने हाथ में लो, मैं तुम्हें सफलता दूंगा। एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन ने कहा था-'चाहे सफलता मेरे हाथ में न हो, पर पुरुषार्थ तो मेरे हाथ में ही है।' पुरुषार्थ व्यक्ति के समक्ष है और भाग्य, सफलता अथवा विजय परोक्ष है। फिर भी मनुष्य प्रत्यक्ष को ठुकराकर अप्रत्यक्ष की कामना करता है। जहां पुरुषार्थ सो जाता है वहां मनुष्य का भाग्य भी सो जाता है। उसकी फलश्रुति होती है-अकर्मण्यता और निठल्लापन। जहां पुरुषार्थ की पूजा होती है वहां भाग्यदेवता मनुष्य की परिक्रमा करता है। इसलिए चाणक्यसूत्र में कहा गया- 'पुरुषाकारमनुवर्तते दैवम्'–भाग्य पुरुषार्थ का अनुवर्तन करता है। इसी सन्दर्भ में कहा गया-'क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे'- महान् व्यक्तियों की कार्यसिद्धि पुरुषार्थ में है, बाह्य उपकरणों में नहीं। ... वैयक्तिक, पारिवारिक अथवा सामाजिक जीवन में सर्वत्र पुरुषार्थ का मूल्य है। पुरुषार्थ का अर्थ है-प्रयोजनसिद्धि के लिए अपनी कर्मजा शक्ति का उचित प्रयोग करना अथवा उद्योग करना। दुनिया में ऐसा एक भी कार्य नहीं है जो बिना पुरुषार्थ के सिद्ध होता हो। फिर वह चाहे लौकिक कार्य हो, चाहे वह लोकोत्तर कार्य हो। सभी में पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। भगवान महावीर ने पुरुषार्थ की प्रेरणा देते हुए गणधर गौतम से कहा था-'किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ, अभितुर पारं गमित्तए' हे गौतम! तुम तीर के निकट पहुंच कर क्यों खड़े हो? उस पार (मोक्ष) जाने के लिए शीघ्रता करो, पुरुषार्थ करो। इसी प्रसंग में संस्कृतकवि ने भी उचित ही कहा
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