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________________ ८५ अवबोध- २ शपथेन विभाव्यते ।' कस्तूरी की सुगन्ध शपथ के द्वारा प्रमाणित नहीं होती । वह स्वतः ही प्रकट होती है। यदि मेरे काव्य में गुण हैं तो वे स्वतः ही प्रकट हो जाएंगे। उनको किसी प्रमाण के द्वारा प्रमाणित करने की जरूरत नहीं है। इसलिए फलश्रुति के रूप में कहा जा सकता है मूल्यांकन सदा गुणों का होता है, गुणरहित का नहीं । गुणवत्ता की जांच के लिए की गई अभ्यर्थना का कोई औचित्य नहीं होता। वह बिना अभ्यर्थना के भी प्रकट हो जाती है। जिस प्रकार पानी कमल को उत्पन्न करता है और उसका परिमल फैलाने का कार्य पवन करता है उसी प्रकार ग्रन्थ का सौरभ स्वयं उसी में निहित है, किन्तु समालोचक उसको फैलाने में निमित्त बनता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ... www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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