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सिन्दूरप्रकर समालोचक सन्तपुरुषों के सामने अपनी भावना को प्रस्तुत करते हुए कहा है- 'सन्तः सन्तु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारोद्यताः।' यदि मेरी कृति में कुछ गुण और विशेषताएं हैं, यदि मेरी कृति सन्तपुरुषों को पसन्द है तो वे मेरे पर प्रसन्न मन वाले हों। अपनी बात उन्हीं लोगों के सामने रखी जाती है, जो उस बात को उचित सम्मान दे सकें और समीक्षा भी उन्हीं लोगों से कराई जाती है जो तटस्थ बुद्धि से समीक्षा कर सकें। भैंस के आगे बीन बजाने से क्या? अरण्यरुदन से भी क्या? उचित-अनुचित का विवेक तो सन्तपुरुष ही कर सकते हैं। जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को निकष पर कसकर उसके असली-नकली रूप का विवेक करता है, जौहरी रत्न को परख कर उसके मूल्य का निर्धारण करता है वैसे ही समालोचक काव्यग्रन्थ की समालोचना काव्य के पेरामीटरों के आधार पर कर उसकी गुणवत्ता का मूल्यांकन करते हैं। ____ ग्रन्थकार आचार्यदेव अपनी अभ्यर्थना को आगे बढ़ाते हुए कहते हैंपानी का कार्य कमलों को उत्पन्न करना है, न कि उनके परिमल अथवा सौरभ को फैलाना। उसको फैलाने का कार्य पवन करता है। यदि वह अवरुद्ध हो जाए अथवा वह परिमल को फैलाने का कार्य न करे तो कमलों की सुगन्ध चारों ओर कभी नहीं फैल सकती। विद्वज्जन पवन के समान होते हैं। मैंने केवल ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ की गुणवत्ता, विशेषता तथा मूल्यवत्ता को विस्तार देना, उसको फैलाने का कार्य तो सज्जनपुरुष-विद्वज्जन ही कर सकते हैं। वे ही इसमें सहयोगी बन सकते हैं।
पुनः ग्रन्थकार अपनी इस अभ्यर्थना पर थोड़ा संकोच का भी अनुभव करते हैं। वे सोचते हैं-कहीं मैं विद्वज्जनों के सम्मुख अभ्यर्थना कर भूल तो नहीं कर रहा हूं? क्या मेरी अभ्यर्थना का कोई औचित्य भी है या व्यर्थ ही मैं ऐसी बात कर रहा हूं? पुनः वे अपनी अभ्यर्थना में संशोधन कर कहते हैं-मुझे दूसरों के सामने अपना आवेदन क्यों करना चाहिए? कहीं मेरी अभ्यर्थना अहेतुक तो नहीं है? यदि मेरी काव्यरचना में गुण हैं, विशेषताएं हैं तो सन्तजन मेरी विनति के बिना ही स्वयं इसकी गुणवत्ता को स्वीकार कर इसका मूल्यांकन कर देंगे। यदि काव्य में कोई गुण अथवा विशेषता ही नहीं है तो वे इसका विस्तार क्यों करेंगे? यदि करेंगे भी तो वह ग्रन्थ-गौरव के लिए अच्छा नहीं होगा। वह यश का नाश करने वाला होगा। संस्कृत साहित्य में कहा गया- 'न हि कस्तूरिकामोदः
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