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ग्रन्थकर्ता का आवेदन
२.अवबोध
संस्कृत का एक सुन्दर सूक्त है- 'प्रयोजनमन्तरेण न मन्दोऽपि प्रवर्तते।' बिना प्रयोजन के मन्द व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब मन्द व्यक्ति भी निष्प्रयोजन कोई प्रवृत्ति नहीं करना चाहता तो बुद्धिमान् कहलाने वाला व्यक्ति अकारण उसमें क्यों प्रवृत्त होगा?
यह एक सचाई है कि प्रत्येक कार्य के साथ व्यक्ति की अपनी एक कामना जुड़ी हुई है। वह कामना, आकांक्षा, अभिलाषा अथवा प्रयोजन ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। उस कामना या प्रयोजन से ही प्रेरित होकर व्यक्ति कार्य करने में प्रवृत्त होता है। वह प्रयोजन स्वयं की यशप्राप्ति का हो सकता है, प्रतिष्ठा का हो सकता है, अपने आपको आगे लाने का हो सकता है अथवा स्वयं के विकास या स्वसन्तोष के लिए भी हो सकता है। प्रयोजन के अनेक प्रकार हो सकते हैं। उसके आधार पर कार्य भी अनेक शाखाओं में बंट जाता है। किसी का कार्यक्षेत्र साहित्यलेखन है तो किसी का प्रचार-प्रसार। किसी का कार्यक्षेत्र सेवा है तो किसी का धर्मोपदेश। कोई सामाजिक क्षेत्र में काम करता है तो कोई सार्वजनिक क्षेत्र में। कोई नैतिक मूल्यों के विकास के लिए कार्यरत है तो कोई अन्यान्य धार्मिक प्रवृत्तियों में।। ___ आचार्य सोमप्रभ एक धर्माचार्य हैं, जैनाचार्य हैं। उनके साथ धर्मआराधना, धर्म-प्रचार, धर्मोपदेश तथा साहित्य-साधना आदि अनेक प्रवृत्तियां जुड़ी हुई हैं। प्रस्तुत कृति 'सिन्दूरप्रकर' उनकी साहित्य-साधना का एक पुष्प है। साहित्य का निर्माण करना एक बात है, उसकी मूल्यवत्ता, गुणवत्ता का अंकन होना भिन्न बात है। जब तक ग्रन्थ का सही मूल्यांकन नहीं होता तब तक ग्रन्थकार को अपनी कृति पर सन्तोष नहीं होता कि उनकी कृति कैसी बनी है? ग्रन्थकार सूरीश्वर सोमप्रभ के मन में एक कामना और भावना है कि उनका यह ग्रन्थ विद्वज्जनों के लिए समादरणीय-समीक्षणीय बने। इसलिए उन्होंने बड़े ही विनम्र शब्दों में
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