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________________ ८२ सिन्दूरप्रकर भगवान वीतराग चेतना से युक्त हैं। जब चेतना सब प्रकार की विकृति या विजातीय तत्त्व से मुक्त होती है तो उस पारदर्शिता तथा विशुद्ध लेश्या का प्रभाव भी शरीर पर घटित होता है। उसी भावधारा के कारण उनका सारा शरीर रश्मिमय हो जाता है। उनके रोम-रोम और अणुअणु से सहज कान्ति टपकती है। व्यक्ति उस सौन्दर्य से अभिभूत हो जाता है। भगवान के सौन्दर्य के साथ रक्ताभवर्ण का होना मणिकांचन योग है। रंग-चिकित्सा में रंगों का अपना विशिष्ट स्थान है। प्रत्येक रंग अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है। नारंगी रंग उत्साह, सृजन, प्रसन्नता, जीवन के सूक्ष्म रहस्यों को खोजने वाला, समर्पण और सबसे अधिक सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। शायद आचार्य ने सुरक्षा की दृष्टि से भगवान के चरणों को रक्ताभवर्ण के रूप में दर्शाया है। आज के शरीरशास्त्री मानते हैं कि दोनों आंखों और भृकुटियों के बीच पिच्यूटरि ग्लैण्ड् का स्थान है। योग की भाषा में इसे तृतीय नेत्र कहा गया है। प्रातिभज्ञान और अतीन्द्रिय क्षमताओं के जागरण के लिए प्रेक्षाध्यान पद्धति में दर्शन केन्द्र पर नारंगी रंग अथवा उगते हुए बाल सूर्य का ध्यान करना तृतीय नेत्र को जाग्रत करता है। संभवतः भगवान के चरणों में झुकने वाला केवल उनकी प्राण-ऊर्जा का ही ग्रहण नहीं करता, अपितु अपनी चेतना का रूपान्तरण भी करता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है• भगवान के चरण रक्षा के प्रतीक हैं, वे प्राणिमात्र का कल्याण करते हैं। • वे चेतना का रूपान्तरण करते हैं। • वे अतीन्द्रिय क्षमताओं का जागरण करते हैं। इसी उद्देश्य से कहा गया- 'प्रभु पार्श्व के चरणनख की आभा तुम्हारी रक्षा करे'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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