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________________ अवबोध-१ शरणागत के लिए भगवान के पैरों का स्पर्श करना और उसमें भी अंगूठे और अंगुलियों का स्पर्श करना अति प्रभावकारी और चमत्कारी होता है। आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य के अंगूठे और अंगुलियों के आभामण्डल (Aura) का फोटो लिया जा सकता है। भगवान की चेतना स्फटिक की भांति निर्मल और पारदर्शी होती है। उनका आभावलय बहुत ही शक्तिशाली और तेजस्वी होता है। जब व्यक्ति अपना सिर उनके पैरों में झुकाता है तो वह उनकी आभा से प्रभावित होता है। भगवान का चुम्बकीय आकर्षण उसे अपने प्रभावक्षेत्र में ले लेता है और तब होता है-ईप्सित रूपान्तरण। भारतीय साधना-पद्धति में शक्तिपात का भी अपना विशिष्ट स्थान रहा है। हाथ और पैर-दोनों विद्युत्-ऊर्जा निर्गमन के शक्तिशाली स्रोत हैं। सिर उस ऊर्जा को ग्रहण करने का माध्यम है। शिष्य गुरु के पास जाता है। गुरु-चरणों में सिर झुकाकर वन्दन करता है। गुरु उसके मस्तक पर अपना हाथ रखते हैं। गुरु के हाथ-पैर से संक्रान्त होने वाली ऊर्जा शिष्य के मस्तक में प्रविष्ट होती है। यही शक्तिपात का रहस्य है। भगवान के चरण-कमल भी उसी ऊर्जा के संवाहक है। ___ पैरों में प्रणत होने का दूसरा अर्थ है-स्वयं के अहंकार को दूसरों में विलीन कर देना। वह विनम्रता के बिना नहीं हो सकता। जो व्यक्ति झुकना जानता है वही वस्तुत: विनम्रता की साधना कर सकता है, उसे कभी अहंकार का नाग नहीं डसता। अहंकार ही व्यक्ति को भवभ्रमण कराने वाला है। जो व्यक्ति उससे मुक्त होता है अथवा जिसका अहंकार भगवान के चरणों में विसर्जित हो जाता है तो भगवान के चरण भी उसको जन्म-मरण से उबार लेते हैं, वे उसकी रक्षा करते हैं। भगवान के चरणों के सौंन्दर्य का वर्णन करते हुए ग्रंथकार कहते हैंउनके चरणनख अत्यधिक रक्ताभवर्ण आभा वाले हैं। आभा शरीर से निःसृत होने वाला सहज सौन्दर्य है। वह आभा भी रक्ताभवर्ण वाली है। उसकी तुलना आचार्य सोमप्रभ ने सिन्दूर, अग्निज्वाला, सूर्योदय, कुंकुम तथा वृक्ष के नवपल्लवों से की है। सहज ही मन में प्रश्न उभरता है कि सौन्दर्य तो मन को लुभाने वाला होता है, रंग का उसके साथ जुड़ना व्यक्ति के लिए किस प्रकार रक्षाकारक हो सकता है? यह सत्य है कि प्रथम दर्शन में व्यक्ति बाहरी सौन्दर्य से ही प्रभावित होता है। भगवान का वह बाह्य सौन्दर्य भी आन्तरिक सौन्दर्य का ही प्रतिबिम्ब है। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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