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सिन्दूरप्रकर सलाह देता है। इसलिए धर्म के द्वारा कामशुद्धि और अर्थशुद्धि-दोनों हो जाती हैं। वहां समाज और व्यक्ति दोनों स्वस्थ रहते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में ग्रन्थकार ने कहा-'न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ'-धर्म के बिना अर्थ और काम भी नहीं होते। अर्थात् धर्म उनका परिष्कार अथवा शुद्धीकरण करता है। यदि धर्म ही नहीं रहा तो अर्थ और काम कैसे शुद्ध रह सकेंगे? धर्म-मर्यादित अर्थ और धर्म-मर्यादित काम एक गृहस्थ के लिए साध्योचित हो सकते हैं। इसलिए व्यासजी ने ठीक ही कहा
___ 'ऊर्ध्वबाहर्विरोम्येष न च कश्चिच्छृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते?' मैं भुजा उठाकर चिल्ला रहा हूं। फिर भी कोई मेरी बात नहीं सुनता। जब धर्म से अर्थ और काम की प्राप्ति अथवा शद्धि होती है तो उस शुद्ध धर्म का सेवन मनुष्य क्यों नहीं करता?
यदि हमें स्वस्थ समाज की संरचना करनी है तो वहां धर्माचरण की बात मुख्य हो जाती है। स्वस्थ-समाज की संरचना में जैनाचार्यों की भूमिका काफी प्रशंसनीय रही और उनका योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा। काल मार्क्स आदि चिन्तनशील व्यक्तियों का अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जितना प्रयत्न रहा शायद उतना प्रयत्न काम-व्यवस्था की समीचीनता के लिए होता तो समाज का नक्शा कोई दूसरा ही होता। वह कार्य धर्म के द्वारा ही संभव हो सकता है। निष्कर्ष की भाषा में प्रस्तुत श्लोक के कुछेक तथ्यों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है• भारतीय दर्शन में पुरुषार्थचतुष्टय का निरूपण है, पर कृतिकार
आचार्य ने पुरुषार्थत्रयी-धर्म, अर्थ और काम का ही प्रतिपादन किया है। हो सकता है कि मोक्ष इस युग में असाध्य-अप्राप्य है। अथवा एक गृहस्थ की भूमिका पर मोक्ष-साध्य की प्राप्ति के लिए वैसा पुरुषार्थ होना भी असंभव है, इसलिए ग्रन्थकार ने उसे अपनी चर्चा का विषय नहीं बनाया। यही विचार 'सिन्दूरप्रकर' ग्रन्थ के टीकाकार हर्षकीर्तिसूरी ने भी मान्य किया है। वे लिखते हैं
'धर्मार्थकाममोक्षाश्चत्वारः पुरुषार्थाश्चतुर्वर्गाः, तेषां मध्ये साम्प्रतम् अस्मिन् भरतक्षेत्रे मोक्षः साधयितुं न शक्यः। अतः करणात् शेषस्त्रिवर्गः धर्मार्थकामरूपः।'
प्रस्तुत प्रकरण के आधार पर कहा जा सकता है
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